पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३९६

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क्यों कर रही हैं ? हा , मेरे ही पाप से! ” इतना कह रावण ने दोनों हाथ से अपनी छाती पीट ली । लंकापति के ये शोक- विदग्ध उद्गार सुन और रक्षेन्द्र को शोकाभिभूत देख मन्त्री सारण ने बद्धांजलि कहा - “ हे देव , दैत्य , नर और नागपूजित जगज्जयी महाराज, दास का अविनय क्षमा हो । आप साक्षात् जगदीश्वर हैं , महाज्ञानी हैं । आपको समझा सके, ऐसा जगत् में कौन है ? महाराज , यदि वज्रपात से हिमशिखर खण्डित हो जाए, तो क्या उसकी पीड़ा से हिमशैल कहीं अधीर होता है ? इस भवमण्डल में सुख - दुःख प्राणी को स्पर्श करता ही है । परन्तु अज्ञानी ही इससे मोहित होते हैं । ” रावण ने शोकसंतप्त नेत्रों से मन्त्री की ओर देखकर कहा - “ सब जानता हूं , पर मेरा हृदय हाहाकार कर रहा है। ” फिर दूत की ओर देखकर कहा - “ अरे, विस्तार से कह। कैसे मेरे वीर अजेय भ्राता का उस दाशरथि ने हनन किया ? " “महाराज , मैं वह अबूझ कहानी कैसे कहूं! जब मतवाले हाथी की भांति धनुर्धर ने शत्रु- दल में प्रवेश किया , तब उसकी हुंकृति से शत्रु थर - थर कांपने लगे। वज्राग्नि की भांति उनके धनुष की टंकार सुनकर शत्रु भागने लगे । हे महाराज, उस समय वीरेन्द्र के गजयूथ और हाथी दल के पदाघात से जो घनाकार धूल उड़ी , उससे आकाश आच्छादित् हो गया और देखते- ही - देखते वीरवर ने बाणों से समरांगण को छा दिया । वर्षा की बौछार के समान बाणों ने छूट - फूटकर काल - सर्प की भांति सहस्रों वानरों को ग्रस लिया । महाराज , महातेज महाराज कुम्भकर्ण ने अपने चरणों के आघात से पृथ्वी को कंपायमान करते हुए समरांगण में धनुष लेकर सात दिन विचरण किया तो वानरदल हाहाकार कर भाग चले । __ “ यम और वरुण से भी अवध्य महाबल कुम्भकर्ण को इस प्रकार अचल , अटल देख सातवें दिन अंगद ने सेना -नेतत्व ले सेना को धैर्य दिया । समाश्वस्त किया । तब शत - सहस्र वानर - यूथ विविध शस्त्रास्त्र ले कुम्भकर्ण पर पिल पड़े । परन्तु दुर्मद कुम्भकर्ण ने उन सहस्रों वानरों को इस प्रकार मसल दिया , जैसे हाथी फूलों को कुचल डालता है । उनमें से बहुतों को समुद्र में फेंक दिया , बहुतों को आकाश में उछाल दिया । बहुतों के खण्ड - खण्ड कर डाले , बहुतों का हृदय विदीर्ण कर उनका रक्तपान किया । वानर प्राण ले भाग खड़े हुए। वानरों का ऐसा भयानक क्षय देख क्षोभ से हतप्रभ हो वानरेन्द्र अंगद ने ललकारा – “ अरे ठहरो , ठहरो! भागते क्यों हो ? चलो , आज या तो समर में शत्रु का हनन करेंगे या स्वयं क्षुद्र प्राणों को त्याग स्वर्गारोहण करेंगे । भय करने से क्या ! " “ अंगद के ऐसे वचन सुन , मरने की ठान , जीवन की आशा छोड़ वानरों के यूथों ने फिर महातेज को घेर लिया । परन्तु महाराज कुम्भकर्ण ने सभी को मसल डाला और प्रबल पराक्रम अंगद के वक्ष में शूल का प्रहार किया , जिससे अंगद मूर्छित हो भूमि पर गिर गया । यह देख वानरेन्द्र सुग्रीव ने भीमविक्रम से रथीन्द्र को आक्रान्त किया । मुहूर्त - भर दोनों का परम क्षोभकारी युद्ध हुआ । सुग्रीव रक्त से लथपथ हो भूमि पर गिर गया । इसी समय दाशरथि लक्ष्मण ने घोर रौद्रास्त्र वीरवर पर प्रयोग किया । उस अस्त्र से विद्ध होकर यह रक्षशिरोमणि राम के सम्मुख दौड़ा । अब महाबली लक्ष्मण ने फुर्ती से अनेक बाणों से उसके हृदय को छेद दिया । वे बाण इस प्रकार रक्षेन्द्र के वक्ष में घुस गए, जैसे सर्प बांबी में घुस जाता है । वीरेन्द्र के हाथ से गदा खिसक गई , शरीर से इस प्रकार रुधिर चूने लगा जैसे पर्वत