पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४००

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उनकी दूध - सी हिमधौत फेनराशि, सबने मिलकर वहां की सुषमा को अवर्ण्य कर दिया था । प्रभाषा ने जाकर देखा , प्रमद वन के स्वर्णद्वार पर हाथ में धनुष -बाण लिए वामाएं निर्भय घूम रही हैं । उनके तरकश के शर मणिमय फणियों के समान शोभित हैं । उन्नत कुचों पर कसे हुए स्वर्ण- कवच ऐसे लग रहे थे, जैसे स्वर्ण- कमल को बाल रवि ने किरणों से आच्छादित कर लिया हो । उनके तीक्ष्ण कटाक्ष तो उनके बाणों से भी तीखे थे । अपने यौवन में मत्त हथिनी- सी वे फिर रही थीं । उनके भारी नितम्बों में स्वर्ण- करधनी किंकिणित हो नूपुर की गूंज को द्विगुणित कर रही थी । प्रमद वन के संगीत की तरंगों से वातावरण मुखरित हो रहा था । रथीन्द्र इन्द्रजित् वहां वारांगना - कुल के साथ स्वच्छन्द लीला -विलास कर रहा था । लंका पर प्रलय मेघ छा रहे हैं , इस बात से वह सर्वथा अपरिचित था । दानवनन्दिनी सुलोचना प्रमिला ने हरित मणिपात्र में लाल - लाल मदिरा भरकर प्रियतम मेघनाद को देते हुए कहा - “पियो वीर स्वामी , इस मधु के साथ इस चिरकिंकरी का चिर प्रेम भी पान करो। " मेघनाद ने एक हाथ में पात्र लिया , दूसरी भुजा प्रियतमा के कण्ठ में डालकर बोला - “ वाह , आज तो जीवन भी इस मद्य की भांति उन्माददाता हो रहा है। यह पृथ्वी कितनी सुन्दर है प्रिये! ” “केवल वीर पुरुषों के लिए स्वामी ! कृमि - कीट की भांति जीवित रहने वालों के लिए यही धराधाम नरक - तुल्य है । " _ “ अधम कायर कीटों की बात क्या ! आओ, हम लोग एक - एक पात्र इस सुवासित मद्य का और पीकर इस सुरभित वासन्ती वायु की भांति झूमें । " “ पियो, वीर स्वामी । ” सुलोचना ने पात्र भरा । इसी समय धात्री प्रभाषा ने वहां प्रवेश किया । वीरेन्द्र धात्री प्रभाषा को देखते ही मणिपीठ से उठ खड़ा हुआ । उसने धात्री के चरणों में प्रणाम कर कहा - “मात:, आज इस असमय में तू किस अभिप्राय से इस भवन में आई है ? लंका में कुशल तो है ? " । धात्री ने मेघनाद का सिर सूंघकर नेत्रों से अश्रु विसर्जित करते हुए कहा, “ पुत्र , लंका में कुशल कहां ? लंका के रक्षक कुम्भकर्ण सहित सब सुभट समरांगण में उस दुर्जय राम के बाणों के भोग हो गए। अब तो लंका वीरशून्या हो गई । देवजयी वीरबाहु भी मारा गया और अब जगदीश्वर रक्षेन्द्र स्वयं ही रण - साज सज , उस महाकाल के सम्मुख समरांगण में जा रहे हैं । महिषी ने कहलाया है -पिता के लिए पुत्र के कर्तव्य -पालन का यही काल है । " धात्री की बात सुनकर मेघनाद ने कहा - “ यह कैसी बात ? भगवति , किसने महातेज , अमितविक्रम कुम्भकर्ण का वध किया ? किसने मेरे अजेय चाचा वीरबाहु का हनन किया ? क्या उस राम ने ही ? मैंने तो उसे उस दिन प्रचण्ड युद्ध में मार डाला था । लंका को अपनी ओर से निष्कंटक करके ही मैं यहां आया था । यह तू क्या अद्भुत- अनहोनी बात कह रही है जननी! मुझ दास से सत्य बात स्पष्ट कह! " प्रभाषा ने कहा - “ अरे पुत्र , वह राम तो मायावी मानव है । वह तो मरकर भी जी उठा और एक - एक ग्रास से इस प्रकार लंका के वीरों को ग्रस लिया है, जैसे दावानल वन को ग्रस लेता है। अब यह लंका वीरों की हुंकार से भरी वीरधात्री नहीं है, अब तो श्मशान भूमि