108. रथीन्द्र का अभिगमन अन्त : पुर में जाकर लंकेश्वर ने देखा कि राजमहिषी मन्दोदरी का केशपाश विशंखल है । उसकी भूषणविहीन देहश्री ऐसी हो गई है , जैसे पाला गिरने से लता कुसुमहीन हो जाती है । उसके अश्रुमय नेत्र , शिशिर की रात में जैसे पद्मपर्ण होता है, वैसे हो गए हैं । शोकरूपी आंधी में जैसे उसके नि : श्वास प्रलय-वायु से जल्द-जल्द निकल रहे हैं । किंकरी नेत्र -नीर में भीगी स्रस्त हस्तों में कठिनता से चवर वहन कर रही है । शय्यागत होने पर भी महिदेव ने विलास नहीं किया , पान नहीं किया , नृत्य में अभिरुचि प्रकट नहीं की , केवल फणीन्द्र की भांति गहरे - गहरे नि :श्वास लेता छटपटाता रहा। तब रक्षराजमहिषी मन्दोदरी ने अश्रुपूरित नेत्रों से रक्षेन्द्र को देखकर कहा - " हे लंकानाथा , अब इस भांति शोकदग्ध होने से क्या होगा ? हाय देखो तो , इस मणिमहालय में कैसा विषाद छाया है! एक - एक करके लंका वीरशून्य हो गई । अब इस कालसमर में स्वयं रक्षेन्द्र इस अभागिनी दासी को असहाय छोड़कर जा रहे हैं । हाय , इस दुर्भाग्या सीता ने अपने अश्रु - सागर में देवदुर्लभ मणिमहालय सहित रम्या स्वर्णपुरी को भी डुबो दिया । सुवासित मद्य की धारा के स्थान पर अब तो मणिमहालय में अश्रुधार ही दीख पड़ती है । आनन्द, उल्लास के स्थान पर महिदेव फणीन्द्र की भांति दीर्घ श्वास ले रहे हैं , जिनके भय से देव , दैत्य , नाग , यक्ष थर - थर कांपते थे, वे जगज्जयी वीर शय्या पर वैकल्य से पीड़ित हैं । " रावण ने कहा - “ देवि , यह नियति -नियत भाग्य की रेखा है, इसे कौन मिटा सकता है! अब तो कल का सूर्य देखेगा कि पृथ्वी राम या रावण रहित होने वाली है। अब तुम मेरा प्रलयंकर युद्ध देखना! ” इतना कह रावण गहरे - गहरे श्वास लेने लगा । महिषी ने पति को अपने कोमल अंग में भर लिया । उनके सिर को अश्रुजलसिक्त कर उसने कहा - “ हे जगदीश्वर, अब आप तनिक निद्राधीन हों , मन को शान्त करें , अधीर न हों , शत्रु का विनाश तो कल होगा। यह रात्रि तो आप सुख से व्यतीत कीजिए । " राजमहिषी के यत्न से महाशोकी रावण निद्रागत हुआ । तब महिषी ने मेघनाद की धात्री प्रभाषा को बुलाकर कहा - “ हे चतुरे , तू अभी जा , वीरबाहु पुत्र मेघनाद से कह मृत्युञ्जय महातेज कुम्भकर्ण को काल - समर ने ग्रस लिया , लंका वीरशून्य हो गई। अब शोकसंतप्त महिदेव जगदीश्वर स्वयं युद्धसाज सज रहे हैं । पुत्र पिता के लिए अपना धर्म निर्वाह करे , इसका यही समय है। " कामचारिणी प्रभाषा तुरन्त प्रमद वन की ओर चल दी , जहां रथीन्द्र इन्द्रजित् आनन्द से सुरा- सुन्दरियों का उपभोग कर रहा था । प्रमद वन की शोभा इन्द्र की अमरावती से भी अधिक थी । स्वर्ण - महल फूलों और रत्नों से सजे थे। वहां की स्तम्भावलि रत्नजटित हेममय थी । वहां रम्य कुसुम - वनराजि विकसित थी । कोयल की कुहू , भौरों की गुंजार , खिले हुए पुष्पों के सौरभ , पत्तों के मर्- मर् शब्द, शीतल - सुरभित वायु, झरनों का झर- झर शब्द ,
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