पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

109. मेघनाद अभिषेक रथीन्द्र मेघनाद के अविरत धनुष -टंकार से लंका कांप उठी । समुद्र उथल - पुथल हो गया । रक्षेन्द्र रण - साज सज रहा था । रण -वाद्य बज रहे थे। हाथी चिंघाड़ रहे थे, घोड़े हिनहिना रहे थे। रथी लौहवर्म पहने हुंकार भर रहे थे। रथों पर रंग -बिरंगी ध्वजाएं उड़ रही थीं । रथ द्रुतगति से इधर से उधर जा रहे थे कि मेघनाद सिर पर कनकटोप पहने , विकराल खाड्ग - शूल धारण किए, पीठ पर अभेद्य ढाल लिए द्रुत्गति से वहां जा पहुंचा । राक्षस दल में जय-जयकार होने लगा । रथीन्द्र ने जगदीश्वर के चरणों में साष्टांग दण्डवत् किया । रावण ने पुत्र को उठाकर छाती से लगाया । वीरेन्द्र ने कहा, “पिता , यह क्या ? मैंने सुना है, मायावी राम मर कर भी जी उठा। यह तो अद्भुत बात है ! अब आप मुझे अनुमति दीजिए कि उस पतित को शरानल से भस्म कर , भस्म को वायु में उड़ा दूं या उसे बांधकर आपके पाद - पद्म में अर्पित करूं ? " रक्षेन्द्र ने पुत्र का बारम्बार आलिंगन करके कहा - “ अरे पुत्र , अब तू ही तो रक्षकुल का एकमात्र आधार बच रहा है । इस काल - समर में तुझे कैसे भेज दूं? अरे , भाग्य मेरे प्रतिकूल है। भला किसी ने सुना था कि जल में शिला तैरती है, मनुष्य मरकर भी जी उठता है ? " ___ “ राजेश्वर , राम तो एक तुच्छ नर है । आप उससे भयभीत क्यों हैं ? मुझ दास के रहते आप समरांगण में जाएं , भला यह कभी संभव हो सकता है! हे पिता , यह सुनकर देवेन्द्र हमारा उपहास करेगा । पृथ्वी के वीर हंसेंगे। मैंने तो राम को परास्त कर छोड़ दिया । अब आप एक बार मुझे और आज्ञा दीजिए। मैं देखू , इस बार वह कैसे मेरे हाथों से बचता है । " " अरे पुत्र , मैंने महातेज , अमितविक्रम कुम्भकर्ण को युद्धार्थ भेजा था । देख , उसका निर्जीव शरीर सिन्धु -तीर पर पड़ा है, जैसे वज्राघात से गिरि - श्रृंग खण्डित हो गया हो । फिर भी पुत्र, समय ही जब उपस्थित है तो तू जा ! मैं तुझे सम्पूर्ण राक्षस चमू का सेनापति नियुक्त कर रहा हूं। " ___ इतना कह राक्षस - राज ने समुद्र - जल ले यथाविधि पुत्र का अभिषेक कर दिया । बन्दीजन गुणगान करने लगे। वीणा बजने लगी । राक्षसपुरी में आनन्द और उत्साह की लहर व्याप्त हो गई । रावण ने भुजा ऊंची कर कहा - “ राज - सुन्दरी लंके, शोक दूर कर ? देख राक्षस - कुल सूर्य उदय हुआ है। दु: ख - रात्रि बीत रही है। सुप्रभात होनेवाला है । वीरेन्द्र के कोदण्ड टंकार से सुरपति कांप रहा है। उसके तूणीर में पाशुपत महास्त्र भरे हैं । प्रिये मन्दोदरी , देखो - देखो यह कौतूहल । अरिन्दम इन्द्रजित् युद्ध - साज सज रहा है। अब राक्षस-कुल- कलंक विभीषण , दण्डकारण्य का वह निष्कासित मानव राम और तुच्छ वानर जीवित न रहेंगे। अरे , बाजे