110 . देवेन्द्र का औत्सुक्य आठ दिन से इन्द्रजित् मेघनाद का राम से घोर संग्राम चल रहा था । देवेन्द्र पुरन्दर अत्यन्त औत्सुक्य से रावणि और राम के युद्ध के परिणाम को देख रहे थे। जब तक रावण और रावणि मेघनाद जीवित हैं , तब तक देवेन्द्र देवलोक में सम्पन्न नहीं है। उसे वह क्षण खल रहा था , जब लंका में बारहों आदित्यों के प्रतिनिधियों और पृथ्वी के सब देव , दैत्य , नाग , असुर जनों के सम्मुख देवराट् इन्द्र ने बन्दी दशा में सप्त समुद्रों , सप्तीर्थों, सप्त महाकूपों का जल मणिकलश में भर मेघनाद के मूर्धा पर अभिषेक किया और सप्तद्वीपपतियों ने उसके पीछे खड़े होकर उसके मस्तक पर छत्र लगाया था । नृवंश के सात सौ नरपतियों ने अतिरथी मेघनाद के रथ के अश्वों की वल्गु पकड़ उसका रथ हांका था । लोक - लोक के आगत - समागत , लक्ष- लक्ष नृवंश के प्रतिनिधियों ने महिदेव , सप्तद्वीप - पति सर्वजयी रावण और इन्द्रदमन करने वाले अतिरथी मेघनाद मृत्युङजय का जय - घोष किया था । उस जयघोष से पृथ्वी की दिशाएं कम्पित हो गई थीं । भूलोक चलायमान हो गया था । ये सारी ही बातें देवेन्द्र पुरन्दर भूला न था । सब दृश्य उसकी आंखों में शूल के समान चुभ रहे थे । इस दुरन्त रावणि के रहते देवलोक के साम्राज्य ही की नहीं , देव - संस्कृति की भी कुशल न थी । अब राम ही पर उसकी आशा केन्द्रित थी । संयोग ऐसा आ लगा कि राम ने कटक ले समुद्र- बन्धन कर असाध्य साधन कर लिया और लंका की सारी समृद्धिश्री को श्रीहत कर दिया । महातेज कुम्भकर्णसहित रावण के पुत्र - परिजन - परिवार को मार डाला तो अब उसे आशा की कोर दिखाई देने लगी थी । पर वह यह भी भली - भांति जानता था कि जब तक राक्षसेन्द्र रावण जीवित है, जब तक मृत्युञ्जय , अमित पराक्रम मेघनाद है , राम के प्राण संकट ही में हैं । राम की जय , राम के भगीरथ प्रयत्न बेकार हैं । उसने राम को सब संभव सहायता देने का निश्चय किया । देवेन्द्र हेमासन पर बैठा, चारुनयनी दानवबाला पौलोमी शची वामांग में बैठी । सिर पर मणि -मुक्ताखचित राजच्छत्र । समीर नन्दन कानन का सुखद -मृदु सौरभ ला रहा था । दिव्य बाजे बज रहे थे। सुचारुहासिनी रम्भा , उर्वशी, चित्रलेखा, सुकेशिनी, मिश्रकेशी अप्सराएं नृत्य -गान कर रही थीं । देव - देवेन्द्र सोमपान कर रहे थे। गन्धर्व हेम -पात्रों में सोम भर - भरकर दे रहे थे। कोई किंकर कुंकुम , कोई कस्तूरी, कोई केसर , कोई चन्दन और कोई सुगन्धित कुसुम - माल ला - ला अर्पण कर रहे थे । इसी समय देवर्षि नारद ने इन्द्रलोक में प्रवेश किया । देवेन्द्र ने आनन्दित होकर कहा ___ “ स्वागत देवर्षि, भले पधारे! मैं तो बड़े औत्सुक्य से आपकी बाट देख रहा था । " ___ " देवराट् देवेन्द्र के औत्सुक्य का कारण क्या है ? यह लीजिए, वेदसूक्त मैंने रच दिया । इसमें देवेन्द्र की अक्षय स्तुति मैंने गान की है। ” इतना कह नारद देवर्षि ने देवसूक्त गान किया ।
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