पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४१३

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कसा स्वर्णखचित वर्म स्वर्ण - शैल - सा दीख रहा था । हनुमान् ने सोचा - " अहा, ऐसा ज्वलन्त रूप, ऐसा दुर्धर्ष तेज तो राक्षसमहिषी मन्दोदरी में भी नहीं है। भगवती सीता की रूप -माधुरी भी इसकी समता नहीं कर सकती । धन्य है रावणि मेघनाद, जिसके स्नेह- बन्धन में यह वज्रध्वंसिनी तडिद्दामिनी बंधी है । उन्होंने कहा - “ सुन्दरी , मेरे स्वामी रामभद्र, दुर्लघ्य सागर को शिलाओं से बांध लक्षावधि वीरों के कटक सहित इस राक्षस - पुरी स्वर्ण-लंका को घेरे हुए हैं । राक्षसराज रावण उनका वैरी है । तुम अबला, इस असमय में यहां क्यों आई हो , सो निर्भय होकर कहो । क्या तुम उनके अनुग्रह की कामना करती हो ? मैं हनुमान, राम का दास हूं । तुम्हारा जो भी अभिप्राय होगा , मैं प्रभुपद में अभी निवेदन कर दूंगा । " इस पर दानवनन्दिनी प्रमिला सुन्दरी ने आगे बढ़ , वीणा विनिन्दित स्वर में कहा - “ हे वीर , तेरा स्वामी राम मेरे पति का वैरी अवश्य है, पर उससे युद्ध करने का मेरा प्रयोजन नहीं है । तू मेरी इस दूती को अपने साथ, अपने स्वामी दाशरथि राम के पास ले जा । वह मेरा अभिप्राय सीता- पति राम से निवेदन कर देगी । " दानवी वामा अभय मुद्रा से शत्रु - दल में घुस पड़ी । हनुमान् मार्ग दिखाते आगे- आगे चले । वानरों के झुण्ड अग्निशिखा के समान उस दानवी बाला को देखने चारों ओर से आ जुटे । हाथ में भीमाकार शूल लिए, कटि पर धनुष, पीठ पर तूणीर , सिर पर चन्द्ररेखांकित मयूर - पुच्छ का चूड़ा , कुच युगल पर देदीप्यमान मणि , पीठ पर रत्नग्रथित वेणी , पैरों में नूपुर । तब मातंगिनी की भांति दिशाओं को दीप्त करती वह दानव - बाला रघुमणि राम की सेवा में आ उपस्थित हुई । सहसा सेना में सागर -कल्लोल की भांति ‘ जय राम की ध्वनि उठी । विभीषाण ने त्रस्त भाव से राम की ओर देखकर कहा - " राघवेन्द्र, तनिक बाहर आकर देखिए तो , यह क्या चमत्कार है ! यह प्रकाश कैसा है ? क्या असमय में ही उषा का उदय हो गया ? " । राम ने बाहर आ , आती हुई वामा को विस्मय से देखकर कहा - “ प्रिय , यह भैरवीरूपिणी वामा कौन है और यहां मेरे पास आने का इसका क्या प्रयोजन है ? क्या यह भी कोई मायाजाल है ? रक्षपति रावण कामरूप है । तनिक भली - भांति देखो कि यह क्या रहस्य है? इस विपत्काल में इस दुर्बल सैन्य की रक्षा तुम्हीं कर सकते हो रक्षेन्द्र! ” । राम के वाक्य सुन गदापाणि विभीषण आगे बढ़े। लक्ष्मण धनुष -टंकार कर राम के आगे आ खड़े हुए । भैरवमूर्ति सुग्रीव राम के पाश्र्व में खड़े हो गए । हनुमान् के साथ आकर दूती ने राम के सम्मुख आ बद्धांजलि निवेदन किया - “ सीता - पति राम और सब गुरुजनों के पदों में प्रणाम करती हूं। मेरा नाम मालिनी है। मैं अरिन्दम इन्द्रजित् की पत्नी , दानवबाला प्रमिला सुन्दरी की किंकरी हूं। " राम ने दाहिनी भुजा उठाकर कहा - "तुझे अभय , तू यहां आने का प्रयोजन निवेदन कर । कह, किस प्रकार मैं तेरी स्वामिनी को सन्तुष्ट कर सकता हूं। " दूती ने कहा - “ सीतापते, दानवनन्दिनी प्रमिला सुन्दरी पतिपद पूजने लंका में जाना चाहती हैं । आप बाहर आकर हमसे युद्ध कीजिए या हमें लंका में जाने दीजिए । आपने अपने बाहुबल से अनेक राक्षसों का वध किया है, अब राक्षस - कुल - वधुएं आपसे युद्ध करना चाहती हैं । राक्षसराज - वधू का यही निवेदन है । हम सब एक सौ रमणियां हैं , आप जिसे