पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४१२

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करने से रोकता है । " स्वर्ण हर्म्य में जाकर उसने वीरांगना का वेश धारण किया । केशों पर मणि किरीट , भाल पर चन्दन की रेखा , कुचों पर कवच, कमर में रत्नजटित कमरबन्द , जिससे बंधी विकराल कराल खड्ग और पीठ पर बड़ी - सी ढाल । हाथ में उसने शूल लिया । वह बड़वा नाम की अश्विनी पर सवार हुई । ___ सौ सखियां भी सज्जित हुईं। सबने खड्ग कोश से निकाल लिए । वे धनुष -टंकार करतीं , पीठ पर तरकस कस , ढालों को हिलातीं , नूपुर की झन- झन , किंकिणी की किन-किन को अश्व के हिनहिनाने की ध्वनि से एकरस - सा करतीं डमरू की डम - डम से लाल- सर्प जैसे नाचता है , उसी भांति अश्वों को नचाती, समरवाद्य बजाती, एक हाथ में शूल और दूसरे में जलती हुई मशाल लिए, लंका की ओर अग्रसर हुईं । राम - कटक को सम्मुख देख तेजस्विनी प्रमिला ने कहा ____ “वीरांगनाओं, आओ, भुजबल से राम- कटक का छेदन कर हम लंका में प्रवेश करें । मैं वीरवर के निकट जा रही हूं । हम सब दानवकुलनन्दिनी हैं । शत्रु के शोणित में डूब मरना या शत्रु का वध करना हमारा कुल - धर्म है । आओ, आओ, आज हम उस भिखारी राम का रूप देख लें , जिस पर राक्षसनन्दिनी पंचवटी में मोहित हो गई थीं । उस दुरन्त सौमित्र को भी देखेंगी, जिसके भय से राक्षस - वधुएं लंका में सुख की नींद नहीं सोती हैं । आज हम उस राक्षस- कुलांगार विभीषण का हृदय भी शूल से विद्ध करेंगी। जैसे मत्त हथिनी नलिनीदलन करती है, वैसे ही हम दानव -बालाएं शत्रु का दलन करेंगी । आओ, हम विद्युत्- वेग से शत्रु दल पर टूट पड़ें । ” दानवनन्दिनी सुलोचना प्रमिला का यह अभिभाषण सुन दानव -बालाओं ने दर्प से हुंकार भरी । वे अपने - अपने नग्न खड्ग हवा में ऊंचे उठा , समुद्र की भांति गरजती हुई आगे बढ़ चलीं । इस वामादल की अग्रवाहिका मालिनी हाथ में शूल लिए आगे बढ़ी। उसके पीछे दावानल की भांति एक हाथ में शूल और दूसरे में मशाल लिए वामादल । धनुषों को टंकारती , शस्त्रास्त्रों को ध्वनित करती वे जा पहुंचीं पश्चिम द्वार पर , जहां मारुति का जाग्रत् पहरा था । मारुति ने दावानल के समान वामादल को आते देख ललकारा - “ तुम कौन हो और इस अन्धनिशा में तुम्हारे यहां आने का क्या प्रयोजन है? शीघ्र कहो। यहां मारुति जग रहा है, जो राक्षसों का प्राण- वैरी है । कहो -कहो, तुमने यह कैसा वीरांगना का मायावेश धारण किया है। मैं मारुति हनुमान् बाहुबल से राक्षसों की माया का मर्दन करता हूं। " । मारुति के वचन सुन , मालिनी ने धनुष को टंकार दी और क्रुद्ध होकर कहा - “ अरे मूढ़ तुझ नगण्य के मुंह कौन लगे ? हम सेवकों को नहीं मारतीं , इसी से तुझ अबोध को मैं छोड़ देती हूं। तू जाकर अपने स्वामी से कह कि अरिन्दम इन्द्रजित् की साध्वी पत्नी , दानवनन्दिनी , प्रमिला सुन्दरी, वामादल के साथ पतिपद पूजने लंका में प्रविष्ट होती हैं । जिस योद्धा में सामर्थ्य हो , रोके। " हनुमान् ने विस्मित होकर दानवनन्दिनी रक्षवधू को आगे बढ़कर देखा , जो सौ वीरांगनाओं के बीच चपल अश्व पर अग्निशिखा की भांति आसीन थी । उसके किरीट का मणि मशालों के प्रदीप्त प्रकाश में नवोदित सूर्य की भांति चमक रहा था । उभारदार वक्ष पर