डाला । नृसिंह या नृग के वंशज आज भी ईरान में रहते हैं और नृग्रिटो कहाते हैं । नृसिंह के सैन्य -संचालन के शिलाचित्र और शिलालेख लुलवी और बेबीलोनिया प्रान्त में मिले हैं । नृग्रिटो जाति के लोग काश्यप सागर के उत्तरी तुर्किस्तान से फारस की खाड़ी तक फैले हुए थे। ईरानी इतिहासकार नृगवंशियों के अधिनायक का नाम नरमसिन बताते हैं , वहां नरमसिन की अर्धसिंह मूर्ति है । नरमसिन एक प्रान्त का नाम भी प्रसिद्ध हुआ जो इस्टखर के निकट परसा प्रान्त में है। वास्तव में खरों के इस्ट हिरण्यकशिपु ही थे। इस्टखर का अर्थ है मूलपुरुष । यही इस्टखर हिरण्यकशिपु की दूसरी राजधानी थी । इस्टखर में इस्तखारी जाति अब भी रहती है । नरमसिर या नरमसिन नृसिंहदेव ही का अपभ्रंश है । हिरण्यकशिपु का वध सुमना पर्वत पर हुआ था । यह पर्वत काश्यप सागर के निकट ही है। इसी के पास देमाबन्द स्थान है, जिसे ईरानियन स्वर्ग कहा जाता है। पर्शिया के प्राचीन इतिहास में नृसिंह के इस अभियान को नरमसिन के नेतृत्व में नृग्रिटों का विजय अभियान कहा गया है, जिसका एक भित्तिचित्र लुलवी प्रान्त में बगदाद व करमनशाह के मध्यवर्ती देश में मिला है। इसमें नृसिंह सूर्य का झण्डा लिए सैन्य - संचालन कर रहे हैं । परसा प्रान्त ही में परसी राजधानी है जहां यमराज का सिंहासन जमशेद का तख्त है , जिस पर सिंह और गिरगिट के चित्र बने हैं । नृगों का चिह्न गिरगिट था । पुराण में संकेत भी है कि नृग शापवश गिरगिट हो गए थे । दैत्यों ने दानवों को अपने साथ मिलाकर अपना बल बढ़ाया । उसी प्रकार नागों और गरुड़ों को आदित्यों ने अपने साथ मिलाकर संगठित किया । वरुण इस समय ईरान के सबसे बड़े कर्ता, धर्ता, विधाता और राजा थे। सभी लोग उन्हें अपना ज्येष्ठ मानते थे। इन्हीं का नाम ब्रह्मा, अल्लाह, इलाही, इलौही, कर्तार आदि था । आजकल जिसे करमान प्रदेश कहते हैं , वही उनकी राजधानी सषा थी । उधर क्षीरसागर पर्शिया की खाड़ी में उनके छोटे भाई सूर्य का आधिपत्य था , तथा अपवर्त में उनके भतीजे सूर्यपुत्र यम का अधिकार था , एवं यवन यूनान में उनके दूसरे भतीजे शनैश्वर का राज्य था । नागों के राज्य सीरिया , कोचारिस्तान , हसनअब्दाल , पाताल , अबीसीनिया और तुर्किस्तान में थे। तुर्किस्तान उनकी सबसे बड़ी राजधानी थी । गरुड़ों का देश गरुड़ - धाम था , जिसे आजकल गरडेशिया कहते हैं । यह तुर्किस्तान के ऊपर है। यद्यपि गरुड़ और नाग दोनों ही जातियां आदित्यों की मित्र और सहायक रहीं , पर ये दोनों जातियां परस्पर शत्रु रहीं । गरुड़ नागों के लिए कालस्वरूप ही रहे । दैत्यों के साथ इस विग्रह के नेता विष्णु ही थे । वरुण मिलकर रहना ही ठीक समझते थे। इस बढ़ती हुई कलह को रोकने के लिए वरुणदेव ने एक प्रयत्न किया । उन्होंने एक महायज्ञ का आयोजन किया जिसमें सब दैत्यों , दानवों और देवों को आमन्त्रित किया गया । उस समारोह में मरीचि , अंगिरा , पुलस्त्य, पुलह, क्रतु आदि याजक और दक्ष प्रजापति , बारहों आदित्य , ग्यारहों रुद्र , दोनों अश्विनीकुमार, आठों वसु , मरुद्गण , शेष , वासुकि आदि बड़े - बड़े नाग ,तार्क्ष्य, अरिष्टनेमि , गरुड़ , वारुणि आदि युगपुरुष आए। अभि , चन्द्र , बृहस्पति और पितृजन भी आए। शनैश्चर , यम - धर्मराज तथा विप्रचित्ति , शिवि, शकु , केतमान, राहु, वृत्र आदि अनेक दानव आए। यहां देव - दैत्यों में राजलक्ष्मी के सम्बन्ध में बहुत कुछ विवाद हुआ। दैत्यों ने
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