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पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४१

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9 . देवासुर संग्राम देवों , दैत्यों तथा उनके मित्रों के राज्यों का ज्यों - ज्यों विस्तार होने लगा , त्यों - त्यों ऐसे राजनीतिक और आर्थिक कारण उत्पन्न होने लगे कि इन दायाद बान्धवों का मित्र - भाव से मिल -जुलकर रहना असंभव हो गया । हिरण्यकशिपु की राजधानी हिरण्यपुरी काश्यप सागर तट पर थी । पर्शिया का लूट या लट प्रदेश जहां है और जिसे कबीर भी कहते हैं , वही कालान्तर में नन्दनवन प्रसिद्ध हुआ। काश्यप सागर की जो भूमि आजकल औक्सस या पार - दरिया कहाती है, उसी के ऊपरी भाग में दाह -स्थान या नन्दनवन था । इसी महामरुभूमि को ग्रेट डेज़र्ट और साल्ट डेज़र्ट भी कहते हैं । यहीं सर्वप्रथम स्वर्ण की खान का पता लगा, जिसे प्राप्त कर दैत्य का नाम हिरण्यकशिपु पड़ा । इसी के कारण प्रथम देवासुर - संग्राम हुआ , जिसकी परम्परा लगभग तीन सौ वर्षों तक चलती रही। चौदह दारुण देवासुर -संग्राम इस बीच में हुए तथा देव , दैत्य , आदित्य जो परस्पर दायाद बान्धव थे , चिरशत्रु हो गए। बहुत - सा स्वर्ण पाकर और अपने बलवान् भाई हिरण्याक्ष की सहायता से हिरण्यकशिपु ने चारों ओर अपने राज्य की सीमाएं बढ़ानी आरम्भ कीं । अनेक देवलोकों को विजित किया । देवों को मार भगाया । इससे देवों पर हिरण्यकशिपु का भारी आतंक छा गया । इस समय तक सम्पूर्ण उत्तर - पश्चिम का फारस और समूचा अफगानिस्तान हिरण्यकशिपु के अधीन हो चुका था । बेबीलोन और उसके आसपास के प्रदेश उसके भाई हिरण्याक्ष के अधिकार में थे। देवगण चारों ओर से दबते चले जा रहे थे और विष्णु इससे बहुत चिंतित थे। वे देवों का संगठन करके प्रत्येक मूल्य पर स्वर्णस्थान तथा दैत्यभूमि को अधिकृत करना चाह रहे थे । इस समय यूरोप के उत्तरी - पश्चिमी प्रदेश में जो नारवे द्वीप है, उसे उस काल में कोलावराह या केतुमाल द्वीप कहते थे - आजकल भी उस अंचल को कोला पैनिन्सुला ( द्वीप ) कहते हैं । यहां कोला - वराह -वंशियों का राज्य था । अतिप्राचीन काल से यहां यह जाति रहती थी । आज तक भी यहां के निवासी कोल कोल्ट - कैल्ट कहाते हैं । उनके नाम भी वाराह के नाम पर होते हैं । प्रलय- काल के बाद वराह- राज से वरुणदेव को एकार्णव के जल से पृथ्वी को उबारने में बड़ी सहायता मिली थी । तभी से देवों के इस जाति से मैत्री - सम्बन्ध हो गए थे। अब देवों के उकसाने से वाराहों ने आक्रमण करके हिरण्यकशिपु के वीर भाई हिरण्याक्ष को मार डाला और बेबीलोन पर सूर्यपुत्र मनु के द्वितीय पुत्र नृग का आधिपत्य हो गया । वाराहों के वंश की एक शाखा नृग के साथ मिल गई और उसकी उपाधि देवपुत्र कहाई। आगे चलकर ईरान के क्षेत्रप इसी वंश में हुए , जो देवपुत्र कहाते तथा वाराह की मूर्ति पूजते थे। यही सूर्यवंशी नृग नृसिंहदेव के नाम से विख्यात हुए और हिरण्याक्ष के निधन से दुर्बल हिरण्यकशिपु को नृसिंह ने अपने प्रबल पराक्रम से आक्रान्त करके मार