तू मेरे नेत्रों को मेरे सामने रहकर शीतल कर। तुझे देखकर मेरे दग्ध प्राण शीतल रह सकते “ जा , सुलक्षणा, माता की पद-वन्दना में । तब तक मैं वैश्वानर के प्रसाद से समर जय कर लौटता हूं। " सुलोचनी सास की लाज छोड़ रोकर कहने लगी - “प्रियतम, शशिकला तो रवि तेज से ही उज्ज्वल रहती है। " " जा प्रिये, अब समय नहीं है, पूर्वाकाश में ललाई दीखने लगी । त लंकेश्वरी के साथ जा । विधाता ने तेरे सुलोचन अश्रु बहाने की नहीं सिरजे । जा शुभे , प्रकाश फैल रहा है । अनुमति दे प्रिये, मैं चला। ” इतना कर रावणि मुंह फेरकर चल खड़ा हुआ । सुलोचना ने दो पद बढ़ा, दोनों हाथ उठाकर , अश्रुपूरित नेत्रों से देखते हुए कहा - “ हे , कुलदेव लंका पर दया कर , विग्रह में राक्षसकुल की रक्षा कर ! हे वैश्वानर , अपने अभेद्य कवच से शूल को परावृत कर ! हे कुलदेवी , तुम साक्षी हो , इस छिन्नलता का आश्रय यही तरुराज है , इसे शत्रु का कुठार स्पर्श न कर सके! "
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