पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४२०

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आज मैं निकुम्भलागार में वैश्वानर की विधिवत् पूजा कर कठिन संग्राम में जाऊंगा । आज मैं प्रबल वैरी का आमूल नाश करूंगा। " इसी समय रावणि ने त्रिजटा वेत्रवती को सम्मुख आते देखकर कहा - “ अरी सुभगे, आज मैं निकुम्भला यज्ञागार में वैश्वानर का पूजन कर वैरी राम का युद्ध में हनन करूंगा । परन्तु मैं सर्वप्रथम मातृपद- वन्दना करना चाहता हूं । देख तो , महिषी क्या कह रही हैं ! उनसे तू ही जाकर निवेदन कर कि उनका अकिंचन दास यह पुत्र और पुत्रवधू उनकी चरण वन्दना के अभिलाषी खड़े हैं । " त्रिजटा ने कहा - “ आयुष्मन् , तेरी जय हो ! आज रात महिषी ने रुद्रालय में जागरण - उपवास करके तेरी मंगल - कामना की है और वे देव -प्रसाद ले इधर ही आ रही हैं । " मन्दोदरी ने आकर पुत्र का सिर सूंघ उसे हृदय से लगाया । पुत्र और वधू ने साष्टाङ्ग दण्डवत् किया। महिषी ने अश्रुजल बहाते हुए कहा - " पुत्र , शत्रुजयी हो , अमित पराक्रम हो ! ” मेघनाद ने कहा- “ मातः, मुझ दास को आशीर्वाद दे कि आज मैं रक्षकुल -विनाशक पापिष्ठ राम का वध कर सकू । अम्ब , तू केवल मुझे पदधूलि दे। फिर मैं देखू कि मेरे कराल बाणों से कौन उसके प्राणों की रक्षा करता है । तेरे प्रसाद से आज मैं उन दोनों दुरात्मा दाशरथियों को बांध लाकर पितृ - चरण का सब संताप हरण करूंगा। " मन्दोदरी ने आंखों से अश्रुजल -विमोचन किया। उसने कहा - “ अरे पुत्र , अब तो तू ही रक्षकुल का एकमात्र आधार बचा है। कैसे मैं तुझे इस काल- समर में जाने को कहूं ? अरे , मेरे हृदय - आकाश का तू ही तो पूर्ण चन्द्र है । तुझे भेजकर अन्धकार में मैं कैसे रहूंगी ? अरे , देवबलयुक्त राम और दुरन्त लक्ष्मण के साथ कुलद्रोही विभीषण भी मिल गया । जैसे सर्प अपने ही बच्चों को खा जाता है, उसी भांति यह राज्य - लोलुप विभीषण अपने कुल का घात कर रहा है । " मेघनाद ने हंसकर कहा - “ अम्ब , तू क्यों उन दोनों राज्यभ्रष्ट वनवासियों से डरती है ? तेरे पद- प्रसाद से यह दास पृथ्वी में अजेय - अयोध्य है। फिर यह तुच्छ नर क्या है ? " ___ “ अरे पुत्र , राम मायावी है , वह मरकर भी जी उठता है। देव उसके सहायक हैं , शिलाएं उसके संकेत पर जल में तैरती हैं , अग्नि बुझ जाती है। अरे पुत्र , उस राक्षसरिपु ने तो महाकाल कुम्भकर्ण को भी मार डाला । महाकाल आदि राजपुत्र भी समर - क्षेत्र में कटे पड़े हैं । अब मैं कैसे तुझे काल - समर में भेजूं ? " मेघनाद ने माता के वक्ष में सिर छिपा लिया । उसके आंसू पोंछकर कहा - “ अम्ब , घर में आग लगने पर भला कौन सुख की नींद सोता रहेगा ? जब शत्रु ने स्वर्ण-लंका घेर रखी है, तब भला मैं कैसे युद्ध से विरत रह सकता हूं ? भला इन्द्रजित् के रहते राक्षस -कुल भयभीत रहेगा ? मातामह दनुजेन्द्र मय और मेरे श्वसुर विश्वजित कालनेमि क्या सोचेंगे ? देवेन्द्र हंसेगा । अब पक्षी बोलने लगे, प्रभात में अब देर नहीं । अम्ब, मुझे आज्ञा दीजिए । अरुणोदय से पूर्व ही मैं वैश्वानर की पूजा सम्पन्न करना चाहता हूं । " उसने भूमि में गिर माता को प्रणाम किया । मन्दोदरी ने कहा - “ जात , अब मैं क्या कहूं! इस काल - समर में शूलपाणि शंकर तेरी रक्षा करें । जा , भगवान् वैश्वानर को आहुति देकर संतुष्ट कर और वधू ,