पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४२४

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दुरन्त मायावी का वध असम्भव है । पृथ्वी का कोई , देव , दैत्य , दानव इस अजेय का वध नहीं कर सकता । ” फिर उसने सीता के कान के पास मुख लाकर मन्द स्वर में कहा - “ अभी कुछ क्षणों में यह दुरन्त रावणि शस्त्ररहित निकुम्भला यज्ञागार में एकाकी जाएगा । यही समय है कि राघवेन्द्र किसी तरह वहां पहुंचकर उसका वध कर डालें । अभी सूर्योदय नहीं हुआ है , परन्तु प्रभात होने में देर नहीं है । मणि - महालय की दुन्दुभियां बज रही हैं । अभी वीरेन्द्र मातृपद - वन्दना करने जाएगा । पीछे वह निकुम्भला यज्ञागार में एकाकी निरस्त्र बैठ वैश्वानर को आहुति देगा । इसमें उसे आधा याम समय लगेगा । अभी भी यदि राघवेन्द्र को कोई यह सूचना दे दे और राघवेन्द्र यह दुस्सह साहस कर सकें तो निश्चय ही यह मृत्युंजय मरण - शरण हो सकता है । " __ सरमा के ये वचन सुन भय से थर- थर कांपती हुई रघुवधू सीता ने धड़कते कलेजे पर हाथ रखकर कहा - “किन्तु सखी, कौन वीर लंका में ऐसा है जो मेरा प्रिय करे ? यह गुप्त संदेश रघुमणि को दे ? फिर रघुमणि निकुम्भला यज्ञागार तक पहुंचेंगे कैसे ? कहां है वह यज्ञागार? वहां तक पहुंचना सुकर होगा भी या नहीं ? " सरमा ने उसी भांति मैथिली के कान में मुंह सटाकर कहा - " रघुवधू , लंका के उत्तर कोण में एक विकट वन है, वहीं एक मनोरम सरोवर है। उसी के मध्यभाग में यह स्वर्णलय निकुम्भला यज्ञागार है । उस सरोवर में दुर्लभ नीलोत्पल खिले हैं । रथीन्द्र भगवान वैश्वानर को वेद - मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके उन्हीं उत्पलों की एक सहस्र आहुतियां देगा। उस भयंकर दुर्गम वन में एक सहस्र शूलपाणि राक्षस भट सयत्न चौकसी करते हैं । यदि श्री राम उस वन में साहसपूर्वक प्रविष्ट हो सकें तो मनोरथ पूरा हो सकता है । यह अवसर चूका सो चूका । " सीता ने विकल भाव से सरमा का हाथ पकड़ लिया । उन्होंने कहा - “सखी, यह सत्य है कि यह अवसर चूका सो चूका । सो सखि , तू ही यह प्राणान्त उद्योग मेरे लिए करे तो हो सकता है, नहीं तो नहीं। " । ____ " मैं ही करूंगी वैदेही, तुम निश्चिन्त रहो। मैं तुम्हारा दु: ख नहीं देख सकती । तुम्हारे भाग्य से रघुमित्र गदापाणि धीर विभीषण राम की सेवा में हैं । चाहें तो अनायास ही गुप्त रूप से निरापद राघवेन्द्र को या उनके भ्राता को निकुम्भला यज्ञागार के अगम क्षेत्र में ले जा सकते हैं , जो सहस्र भट - रक्षित है और जहां बिना अनुमति वायु का भी प्रवेश नहीं हो सकता । " ___ " तो अरी , मेरी प्राणदात्री सखी, एक - एक क्षण बहुमूल्य है, तू अभी जा ! हे दिव्या , तू रघुवंश की लाज रख । तुझे वीरमणि मारुति मिलें , सौभद्र लक्ष्मण मिलें या आर्यपुत्र दीखें , उनसे तेरा साक्षात्कार हो , तो तू अपना गुह्य निवेदन उन्हीं से कर आ ! ” इतना सुन सरमा तुरन्त वहां से अदृश्य हो गई । रह गई वैकल्य -विकल, भाग्यदग्धा , एकाकिनी , प्रिय -वियोगिनी वैदेही - आशा-निराशा के झूले में झूलती- सी ।