पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विभीषण को बांधकर ले आता है। " “ धन्य है महीन्द्र, महिदेव , रक्षपति , पौलत्स्य , जगदीश्वर रावण रक्षेन्द्र, वह जगत् में महिमा का समुद्र है। कहो भला, पृथ्वीतल पर और किसका ऐसा वैभव है ? परन्तु इस भिखारी राम ने उस रत्नमयी लंका को विधवा बना दिया । देखा , समुद्र - तीर पर पर्वत के समान कुम्भकर्ण महाराज समर - भूमि में पड़े हैं । भला इस बात की भी कोई कल्पना कर सकता था ? " “ अरे, तभी तो लंका के हेमकूट के समान गगनचुम्बी प्रासादों की हाथी- दांतजड़ी खिड़कियों और स्वर्णद्वारों से , निहत वीरों की म्लानवदना राक्षस - वधुएं साश्रुनयन समर क्षेत्र की ओर देख रही हैं । " ___ " हां भाई , सच है। लंका की भांति वैभव इस लोक में भला कहां था ? पर जगत् में स्थिर कौन है ? सागर -तरंग की भांति एक वस्तु आती और दूसरी जाती है। चलो भाई , चलो देखें ; अब तो प्राचीर पर नरमुण्ड दीखने लगे । "