119. वज्रपात महीपति रक्षेन्द्र ने आज भोर ही में सभाभवन में आ रत्न-सिंहासन सुशोभित किया । मन्त्री, सभासद् सभी उदग्रमन अपने - अपने आसन पर बैठे । रक्षेन्द्र गम्भीर भाव से मौन बैठा रहा । फिर उसने कहा - " क्या वीरपुत्र का वैश्वानर - यज्ञ सम्पूर्ण हुआ ? राक्षस - सैन्य क्या रणक्षेत्र को प्रस्थान कर गई ? पुत्र ने राजमहिषी की तो चरण - वन्दना की , पर मेरे निकट मेरा आशीर्वाद लेने नहीं आया ? मैं आशीर्वाद देता हूं - वह आज शत्रु का हनन कर लंका-कंटक दूर करे। परन्तु मैं जय -निनाद नहीं सुन रहा हूं । हाथी नहीं चिंघाड़ रहे, न घोड़े हिनहिना रहे हैं । यह मेरे हृदय में हूक - सी कैसी उठ रही है! सभासदो , मैं तो अब स्वर्णासन पर स्थिर नहीं रह सकता । मेरे प्राण अधीर हो रहे हैं । क्या सेना प्रस्थान कर गई ? " सारण ने अधोमुख हो कहा - “ शृंगी - नाद तो नहीं सुनाई दे रहा है । किन्तु यह कोलाहल कैसा है? " “ यह तो बढ़ता ही जा रहा है। यह सेना का जयनाद नहीं है। अब युद्ध के धौंसे एकबारगी ही कैसे बजने बन्द हो गए ? भेरी- नाद कहां सुनाई दे रहा है ? " । रावण ने विकल दृष्टि से चारों ओर देखा । इसी क्षण एक चर आकर - “ हे परमेश्वर , हे रक्षेश्वर , हे महिदेव ” कहता , भूमि में आ गिरा । इसके बाद दो - चार - दस - पचास - सौ । __ “ यह क्या ? कोई बोलता क्यों नहीं ? ” रावण ने गरजकर कहा। परन्तु दूतों के मुख से बात नहीं फूटी । वे –‘रक्षा करो, रक्षा करो कहकर सिर धुनते हुए भूमि में पड़े रहे। रावण का मन हाहाकार कर उठा । उसने कहा - “ कोई भी कुछ नहीं कहता । ये सब तो अक्षत हैं , निरापद हैं , फिर इतने कातर क्यों हैं ? ” रक्षेन्द्र मणिपीठ त्यागकर खड़ा हो गया । उसने कहा - “ अरे कहो , क्या संवाद है ? क्या वीरपुत्र ने प्रस्थान कर दिया ? चतुरंगिणी सेना क्या शत्रु के सम्मुख पहुंच चुकी ? " दूत सिर धुनने और विलाप करने लगे । रावण ने कहा - “ अरे कहो , तुम सब इतने शोकातुर क्यों हो ? क्या तुम कोई अमंगल वार्ता करना चाहते हो । यदि अरिन्दम ने राम को मार डाला है, तो कहो , मैं सभी को राजप्रसाद दूंगा। " एक वृद्ध दूत ने सिर उठा, मुख में तृण दाब कांपते - कांपते कहा - “ हे पृथ्वीनाथ , यह अधम दास अमंगल -वार्ता कैसे कहे ? हाय ! वह बात कहने से पूर्व ही मेरी जीभ कटकर गिर जाए । " “ अमंगल-वार्ता! कैसी अमंगल -वार्ता? अच्छा शुभाशुभ जो हो, वही कह। शुभाशुभ तो विधि का विधान है। झटपट कह - मैं तुझे अभयदान देता हूं। " । " हे जगदीश्वर! मृत्युञ्जय , रथीन्द्र, इन्द्रजित् युवराज का निकुम्भला यज्ञागार में
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