पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४३३

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किसी अज्ञात छली ने वध कर डाला । उनका रक्तप्लुत अंग - अंग निष्प्राण शरीर यज्ञ भूमि में पड़ा है । " यह सुनते ही रावण कटे वृक्ष की भांति भूमि पर गिर गया । सभासदों ने दौड़कर मूर्च्छित महिदेव को उठाया । सहसा सैकड़ों- सहस्रों राक्षस भट रोते -चिल्लाते छाती कूटते सभाभवन में घुस आए । रावण ने चैतन्य होकर अपने चारों ओर देखा । मन्त्रिवर सारण ने बद्धांजलि निवेदन किया - “ हे स्वामी , इस समय आप शोकावेग को न सहेंगे तो राक्षस - कुलांगनाओं के चक्षुजल में पृथ्वी डूब जाएगी । हे त्रिलोकजयी , अभी आपको भीमास्त्र से पुत्रघाती का हनन करना है। " रावण ने उन्मत्त की भांति कहा - “ कौन है वह वीर ? किसने रणंजय पुत्र का वध किया ? ” ___ “ महाराज , रामानुज लक्ष्मण ने छद्मवेश में यज्ञागार में प्रविष्ट होकर यह दुष्कृत्य किया । रथीन्द्र जब भगवान् वैश्वानर को वेद- मन्त्रों से अभिमन्त्रित कर नील कमल की आहुति अर्पण कर रहा था , तभी सौमित्र ने हठात् प्रविष्ट होकर निरस्त्र महारथी का वध कर डाला । " रावण ने वज्रगर्जना करके कहा - “ अरे वीरो, युद्ध- साज सज लो । आज मैं इस शोक ज्वाला से विश्व को भस्म करूंगा। " सहसा प्रलय -गर्जन की भांति शत - सहस्र दुन्दुभियां बज उठीं । महिदेव मत्त गजेन्द्र की भांति लड़खड़ाता हुआ अन्त : पुर में पहुंचा। मन्दोदरी रोते रोते चित्रांगदा और सखियों- सहित आकर उसके पैरों में लोट गई । रावण ने आहत पशु की भांति कराहकर कहा “प्रिये, धैर्य धारण करो । अभी तुम शून्यगृह में बैठो । मैं इस समय रण -यात्री हूं । अभी तो मुझे पुत्र की मृत्यु का बदला लेना है । देवियो , अभी तो मुझे रण - साज सजाकर विदा करो, विलाप के लिए तुम्हें बहुत समय मिलेगा । मैं तनिक उस कपटी, चोर सौमित्र का हृदय विदीर्ण कर उसका हत्खण्ड निकाल लाऊं । फिर इस निरर्थक राज्य - सुख को तिलांजलि दे, एकान्त में बैठकर तुम्हारे पुत्र का स्मरण करूंगा। अरे महिषियो , रोती क्यों हो ? यह रोषाग्नि क्या तुम्हारे अश्रु- जल से बुझ जाएगी? आज तो गिरिश्रृंग ही चूर्ण हो गया । चन्द्रमा के खण्ड - खण्ड हो गए। रविमण्डल का तेज ही बुझ गया । " मन्दोदरी ने कहा - “ देव , राक्षसकुल के अन्तिम नक्षत्र आप ही तो शेष हैं । भला हम कैसे आपको उस मायावी राम के सम्मुख जाने दें ? हे महाराज, कैसे हम धैर्य धारण करें ? " राजमहिषियों के विलाप से विचलित हो रावण ने कहा - “जिसके पराक्रम से देवलोक और नरलोक मैंने जय किया , जिसके भय से अतलतल में नाग भयभीत रहते थे, देवेन्द्र सुख की नींद नहीं सोता था , जिसके मस्तक पर नृवंश के छत्रपतियों के सम्मुख दास की भांति कंधे पर तीर्थोदक का कलश रख देवराट ने अभिषेक किया , उस राक्षस -कुलदीप का चोर सौमित्रि ने अन्यायपूर्वक पशु की भांति वध कर डाला ! हाय , वीरमणि निरस्त्र ही मारा गया ! मैंने व्यर्थ ही देव , दैत्य , नर - कुल को जय किया ! झूठ ही जगज्जयी नाम धराया ! पर अब विलाप से क्या ? इससे क्या पुत्र फिर से जी जाएगा ? मैं आज अधर्मी सौमित्रि का