125 . सन्धि -भिक्षा “ सारण, वैरी रात - भर तो शोकातुर रहे । उनके करुण क्रन्दन से लंका की प्राचीर कांप गई , परन्तु अब यह कैसा आनन्दोल्लास आकाश को विदीर्ण कर रहा है? क्या मूढ़ सौमित्रि फिर जी उठा ? " रावण ने विषष्ण - वदन हो मन्त्री सारण से हताश भाव से कहा । सारण ने बद्धांजलि होकर कहा - “ जगदीश्वर , इस माया - संसार में अदृष्ट की माया कौन समझ सकता है ? " “ ठीक है, अदृष्ट प्रबल है । अरे , उस मायावी राम ने अविराम सागर को अपने कौशल से बांध डाला । जिसकी माया से जल में शिला तैरती है, जो समर में मर - मरकर बारंबार जी उठता है, उसके लिए असाध्य क्या है ? पर इस बार कैसे वह पुत्रघाती जी उठा ! " सारण ने खिन्न होकर सिर नीचा करके कहा - “ महिदेव , महोदय शैलकूट के गन्धमादन की विशल्या - संजीवनी औषध के प्रभाव से भिषक् सुषेण ने लक्ष्मण सहित सब वानर यूथपतियों को प्राणदान दिया है। अब उसी उल्लास में राम - कटक आनन्द नाद कर रहा है । " ____ “ परन्तु यह तो अत्यन्त चमत्कारिक वार्ता है। सुदूर पर्वतराज के अगम शिखर से इतने अल्पकाल में कौन वीर महौषध लाया ? " “ मारुति को छोड़ और कौन यह दुस्साहस कार्य कर सकता था ? महाराज, जैसे हिमान्त में भुजंग तेज से पूर्ण हो जाता है, उसी प्रकार दिब्यौषध के प्रभाव से सौमित्रि सहित सब वानर - कटक ओज से ओत - प्रोत हो रहा है। " रावण ने विषाद से गहरी सांस छोड़ी । फिर कुछ देर चुप रहकर उसने कहा - “ तूने ठीक कहा सारण , अदृष्ट ही प्रबल है। मैंने सम्मुख समर में देव -मनुष्य सभी को परास्त कर कल जिस -जिस रिप का वध किया , वह फिर जी उठा ! मृत्य ने अपना धर्म भुला दिया । अब पराक्रम किस काम का ? मैं समझ गया , राक्षस - कुल का सौभाग्य- सूर्य अस्त हो गया । अरे, शूलीसम भाई कुम्भकर्ण और अजेय इन्द्रजित भी जब काल - कवलित हो गए, तब अब मेरा प्राणधारण वृथा है । ” इतना कह रावण शोक-सागर में डूबकर बैठा रह गया । सारण के मुंह से भी बात नहीं निकली । रावण ने फिर डूबते स्वर में कहा - “ जा सारण, तू वैरी राम से जाकर कह कि जगदीश्वर रावण वैरी राम से यह भिक्षा मांगता है कि वह सात दिन तक वैर - भाव त्यागकर सैन्य - सहित विश्राम करे । राजा अपने पुत्र की अन्त्येष्टि क्रिया यथाविधि करना चाहता है। तू जाकर उससे कहना – हे वीर, तेरे बाहुबल से वीरयोनि लंका अब वीरशून्या हो गई है । तू वीर कुल में धन्य है, अदृष्ट तेरे अनुकूल है और रक्षकुल विपत्ति में है । सो तू वीर धर्म का पालन कर । जा सारण , अब तू विलम्ब न कर । " बालिसुत अंगद ने आकर राम की सेवा में विनय की
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