पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४५३

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126. चितारोहण लंका का पश्चिमी द्वार वज्र-निनाद से खुला । एक लाख राक्षस स्वर्णदण्ड हाथ में लिए बाहर आए । प्रत्येक के हाथ में रेशमी पताका थी । वे राजपथ के दोनों ओर पंक्तिबद्ध चलने लगे । सबसे आगे हाथियों की पीठ पर दुन्दुभि थी । मेघ - गर्जना के समान उनका गम्भीर रव दिगन्त में व्याप्त हो रहा था , उनके पीछे पैदल सेना की कतारें बढ़ीं । उनके पीछे घोड़े और हाथियों पर धुनर्धर । शोकध्वनि में करुण वाद्य बज रहे थे। असंख्य राक्षस वीर स्वर्णवर्म पहने , स्वर्णध्वज लिए , भारी- भारी खड्ग कमर में लटकाए, सिर नीचा किए, शस्त्रों को पृथ्वी पर टेकते हुए आगे बढ़े जा रहे थे। इनके पीछे दानवपुत्री सुन्दरी सुलोचना प्रमिला काले घोड़े पर वीर - वेश में सवार आई । पीछे किंकरी चमर डुला रही थी । उसके पीछे एक सहस्र चेटी, दासी किंकरी, पार्श्विका, पैदल , अश्रु बहाती नंगे पैर काले वेश में चलीं । दासियां कौड़ियां और खीलें फेंकती जा रही थीं । गायिका करुण गीत गाती जाती थी । सागर - तीर पर , जहां अनन्त नील नीर के इस ओर दूर तक स्वर्णबालुका का समतल मैदान सूर्य की धूप में चमक रहा था , वहां महती चिता रची गई । उसमें मनों चन्दन , अगरु और गन्ध -पलाश के ढेर लगे हुए थे। राक्षसवीर नंगी तलवारें ले पंक्तिबद्ध खड़े हो गए। पुरोहित वेदमन्त्र - पाठ करने लगे। सुपूजित शव चिता पर रखा गया । सुलोचना ललाट में सिन्दूर -बिन्दु लगाकर गले में पुष्पमाला पहनकर चिता पर आ बैठी । राक्षस पत्नियां हाहाकर कर उठीं । । ___ सामने शत - शत चिताएं दूर तक सिकता - सागर पर रची हुई थीं । सबके बीच में महाकाय कुम्भकर्ण की चिता थी । महाकाय , अकम्पन , अतिकाय, महोदर , वज्र , त्रिशिरा , कुम्भ , निकुम्भ , निरांतक , उदग्र , वास्कल, अतिलोमा , विडालाक्ष, दुर्मद आदि महाप्राण राक्षस, कभी जिनके नाम से पृथ्वी के वीर थर्राते थे, अपनी - अपनी चिताओं में चुपचाप अनन्त निद्रा में सो रहे थे। अपने - अपने पतियों के पादपद्म को गोद में लिए राक्षस कुलवधुएं सहगमन को सन्नद्ध बैठी थीं । चिताओं को घेरकर चेटियां , दासियां , बन्दिनियां उत्सर्ग होने को तैयार खड़ी थीं । सभी के शरीर पर सौभाग्य के चिह्न थे। __ सहस्र चेटियों ने स्वर्णपात्रों में भर - भरकर चन्दन , अगरु, कस्तूरी, घृत , केसर , पुष्प चिता पर बिखेरे । डफ , ढोल , मृदङ्ग, करताल , झांझ और शंख बज उठे । रावण श्वेत वस्त्र धारणकर मन्त्रियों सहित आगे आया। अंगद, इन्द्र और कार्तिकेय कुमार ने रावण के साथ आगे बढ़ संवेदना प्रकट की । दिव्य बाजे बजने लगे । वृद्धा सुहागिनों ने सुलोचना के मस्तक पर पुनीत जल का सिंचन किया । सुलोचना ने आभूषण उतार सखियों और चेटियों को देते हुए कहा “ अरी प्यारी सहचरियो, आज अचानक ही मेरी जीवन लीला समाप्त होती है ।