कल तक मुझे इस बात का पता ही न था । तुम सब अब दानवलोक में लौट जाना । अरी वासन्ती , पिता से सब कुछ कह देना और माता से ... ” एकाएक उसकी बोली बन्द हो गई , सब स्त्रियां हाहाकार कर उठीं । कुछ ठहरकर प्रमिला ने कहा - “ अरी, माता से कहना , जो अदृष्ट में था , वह हो गया । उन्होंने मुझे जिन्हें सौंपा था , उन्हीं के साथ मैं जा रही हूं। " वेदपाठी वृद्ध राक्षसों का दल वेदपाठ करता हुआ आगे आया । मंगलवाद्य बजने लगे । राक्षस -स्त्रियां मंगल - गीत गाती हुई चिता के चारों ओर घूमने लगीं। राक्षस बाणों से पशुओं को मार - मारकर चिता में चारों ओर रखने लगे । रावण ने आगे बढ़कर कहा - “ अरे मेघनाद , मैंने आशा की थी कि तुझे राज्यभार दे महायात्रा करूंगा । परन्तु अदृष्ट ने कुछ और ही रचना कर डाली । स्वर्ण-सिंहासन की जगह तुझे आज पुत्र - वधू - सहित इस अग्निरथ पर बैठा मैं देख रहा हूं । हाय, इसीलिए मैंने तेरा देवसान्निध्य कराया था ? इसीलिए मैंने रुद्राराधना की थी ? हा पुत्र ! हा वीरश्रेष्ठ!! ” । जगज्जयी रावण जगदीश्वर सिर धुनता हुआ भूमि पर गिर पड़ा । अमात्यों ने , वृद्धजनों ने उसे उठाया । रावण ने चिता में अग्नि दी । सहसा चिता जल उठी । इसी समय शत - शत चिताओं में अग्नि दे दी गई। प्रलयाग्नि की भांति उन शत - शत चिताओं से अग्नि की लपटें उठने लगीं । दासी , चेटी , सखियां प्राणोत्सर्ग करने के लिए चिताओं में कूद - कूदकर भस्म होने लगीं। बाजों की गड़गड़ाहट , बन्दीजनों के जय - जयकार , आर्तजनों के विलाप और योद्धाओं के चीत्कार से समुद्र- तट उस समय प्रलयकाल के अग्नि - समुद्र की भांति भयानक हो उठा । ध्वनिवेग से आकाश फटने लगा । दस हजार घड़ों की दुग्ध - धार से अतिरथी की चिता बुझाई गई । फिर सब चिताओं की भस्म - राशि सागर में विसर्जित कर लंकापति रावण लुटे हुए पथिक की भांति अधोमुख आंसू बहाता राक्षसों, राक्षस - पत्नियों सहित सूनी और हाहाकार से भरी लंका में लौट आया ।
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