पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

127 . वध राक्षसपरी सात दिन तक विषाद में रोती रही । सहस्रों राक्षस -शिल्पियों ने वीरेन्द्र की चिता पर गगनस्पर्शी चैत्य स्वर्ण की ईंटों से रचा। सात दिन भी बीत गए । रावण ने सिन्धु में परिजनों - सहित स्नानकर अशौच त्यागा। अब वह अश्रुनीर को क्रोध और अमर्ष की आग में जलाता हुआ रणसाज सजने लगा । लंका में फिर दुन्दुभि गड़गड़ा उठी । श्रृंगी- नाद होने लगा। रावण अपने रथ पर बैठ मन्दोदरी आदि अन्त : पर की सब स्त्रियों को पछाड़ खाती रोती - कलपती छोड़, विषधर सर्प के समान फुफकार मारता हुआ बन्दियों और योद्धाओं से परावृत समरांगण में आ पहुंचा। सात दिन - रात अनवरत राम - रावण का अप्रतिम , अवर्ण्य संग्राम होता रहा। अन्त में रावण ने राम का साम्मुख्य किया । राम ने देखा तो धनुष -टंकार किया । मातलि दिव्य रथ ले आया । विभीषण आदि महारथी राम को चारों ओर से घेरकर चले । राम ने कहा - “ मे चिरम - भीप्सित : पराक्रमस्य कालोऽयं सम्प्राप्त :। चातकस्य कांक्षितं धर्मान्ते मेघदर्शनमिव । अस्मिन् मुहूर्ते न चिराद् अरावणमरामं वा जगद् द्रक्ष्यथ। " इतना कहकर राम ने सारथि से कहा - “ हे देवसारथि , अब चलो राक्षसराज के उस श्वेत छत्र के सम्मुख । ” रावण ने भी जब राम के रथ को देखा तो क्रोध से लाल -लाल आंखें करके धनुष उठाया । राम ने पुकारकर अपना नाम - गोत्र उच्चारण करके कहा - “ मया विरहितां दीनां वैदेहीं हृत्वा शूरोऽहमिति मन्यसे ! स्त्रीषु शरण्यविनाथासु परदाराभिमर्शनं कापुरुषकर्म कृत्वा शूरोऽहमिति मन्यसे ! भिन्नमर्याद, निर्लज्ज , चारित्रेष्वनवस्थित , शूरोऽहमिति मन्यसे ! तस्याद्य गर्हितस्याहितस्य कर्मण: महत्फलं प्राप्नुहीदानीम् ? ___ "रे दुर्मते, शूरोऽहमिति चात्मानमवगच्छसि , सीतां चौरवद् व्यपकर्षतस्ते नाऽस्ति लज्जा । दिष्ट्यासि , अद्य त्वां सायकैस्तीक्ष्णै : मृत्युमुखे नयामि । अद्य ते मच्छरैश्छिन्नं शिरो क्रव्यादा व्यपकर्षन्तु । ” । ___ श्री राम ने एकबारगी ही अविरल बाण वर्षा से राक्षसेन्द्र को ढांप दिया । असंख्य वानर - यूथ, यूथपति गुल्मनायक , भट - सुभटों ने रावण के रथ को चारों ओर से घेरकर उस पर विविध शस्त्रास्त्रों की वर्षाकर रथ को क्षण -मात्र में जर्जर कर डाला । इस भयानक आक्रमण से भग्नहृदय रावण विचलित हो गया । जब तक वह धनुष पर बाण -संधान करे , तब तक श्री राम ने दस पैने बाण उसके हृदय में मारे। रावण झूमता हुआ मूर्छित हो रथ पर गिर पड़ा। सूत ने यह देखा , तो वह रथ का रुख मोड़ युद्ध- क्षेत्र से भाग खड़ा हुआ । विजय - गर्व- मत्त वानर- सैन्य जयनाद करती हुई भागते राक्षसों का निर्दय - संहार करने