धनुष को खींचकर छोड़ दिया । वह ज्वलन्त अमोघ ब्रह्मशर रावण के हृदयदेश को विदीर्ण कर पार निकल गया । वज्र के समान दुर्धर्ष उस ब्रह्माशर को वज्र - बाह राम ने कृतान्त के समान वेग से फेंका था । वह अमोघ वज्र ब्रह्मशर रावण के मर्मस्थल को विदीर्ण कर उसके प्राण का संहार करता हुआ पृथ्वी में धंस गया । रावण का रुधिराक्त शरीर बिजली से मारे हुए शैल -शिखर की भांति भूमि में गिर गया । महाप्राण, महावीर्य, अमिततेज , जगज्जयी , जगदीश्वर रावण को इस प्रकार भूपतित देख इन्द्र ने हर्षोन्मत्त हो हठात् शंखध्वनि की । एकबारगी ही शत- सहस्र शंख बज उठे । राक्षस अनाथों की भांति शस्त्र त्याग युद्धभूमि ही में बैठकर रुदन करने लगे । वानर सैन्य बार - बार हर्षनाद से पृथ्वी को कम्पायमान करने लगी , सैंकड़ों दुन्दुभियां गड़गड़ा उठीं । देव , मनुज , गंधर्व, यक्ष, नर, वानरों ने राम पर पुष्पवृष्टि की । सबने राम का रथ घेर लिया । राम की आज्ञा से युद्ध तत्क्षण बन्द कर दिया गया । इन्द्र बारंबार ‘ साधु - साधु कहने लगा । मरुद्गणों ने विजय के बाजे बजाए । तभी लक्ष्मण, विभीषण , सुग्रीव , हनुमान्, अंगद आदि सुहृद्विशिष्टों ने राम की एकत्र हो विधिवत् अर्चना की । विश्ववन्दित देवदैत्यजित् बड़े भाई को निहत , निर्जित रण में सोते देख शोक - संतप्त विभीषण विलाप करने लगा - " हा हा , वीरविक्रान्त , प्रवीण, नयकोविद महार्हशयनोपेत किं निहतो भुवि शेषे ? यन्मया पूर्वमीरितं तत्काम - मोहपरीतस्य तव न रुचितम् । आदित्यो भूमौ पतितः, चन्द्रमा तमसि मग्नः, प्रशान्तोऽग्निः , निरुद्यमो व्यवसाय :! " राम ने विभीषण को आकर सान्त्वना दी । उन्होंने कहा - “ नैव विनष्टा: शोच्यन्ते , ये निपतन्ति रणाजिरे ते वृद्धिमाशंसमाना:। ” । विभीषण ने शोकोद्गार छोड़ते हुए भी कहा- “ एष महातपा वेदान्तपारगश्चाग्रशूर एतस्य प्रेतस्य यत्कृत्यं तत्ते प्रसादात् कर्तुमिच्छामि । ” राम ने वाष्पपूरित नेत्रों से विभीषण को देखा , फिर कहा - “मरणान्तानि वैराणि, एष यथा तव ममाऽपि तथा । क्रियतामस्य संस्कार :! और इसी क्षण रावण की अन्त : पुरवासिनी , मृगलोचनी , मृदुलगात्रा , सुवामा शत शहस्र अनिंद्य सुन्दरियां , जो पृथ्वी भर के देव, दैत्य , दानव, यक्ष , ऋक्ष, गन्धर्व, नर, नागराजों की सुकुमारी कुमारियां , राजपुत्रियां रावण की अंकशायिनी स्वयंवरा थीं , वे सब राज - महिषी मन्दोदरी और चित्राङ्गदा को आगे कर शोक -विह्वला, बारंबार भूमि पर पछाड़ खातीं हा आर्यपुत्र , हा नाथ का आर्तनाद करती हुई रणस्थली की रक्त मज्जामिश्रित पंक को अपने सिरों पर उड़ातीं, मुक्तिकेशिनी , मलिनाङ्गी वहां आ , जगज्जयी, परमेश्वर , सप्तद्वीपपति , राक्षसराज रावण को भूमि पर रक्तप्लुत निष्प्राण पड़ा देख छिन्न लता की भांति उसके अंग पर गिर गईं । बहुतों ने तो उसे उठाकर अंक में रख लिया । बहुत रोती हुई उसके चरणों पर सिर धुनने लगीं । बहुत उसके कण्ठ में लिपट गईं । किसी ने उसकी क्षतविक्षत भुजा को हृदय से लगाया , बहुत - सी उसे मृतक देखकर मूर्छित ही हो गईं । कितनी ही उसका मुख देख देखकर रोते - रोते बेहोश हो गई । मन्दोदरी ने विलाप करते हुए कहा- “ त्रैलोक्यमाक्रम्य श्रिया वीर्येण चान्वितमविषह्यं त्वां कथं वनगोचरो मानुषो जघान ? " चित्रांगदा ने कहा - “ अथवा रामरूपेण कृतान्त : स्वयमागत :! "
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