पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ठाठ से सजाए गए थे। सारे सभा - मण्डप में रंग -बिरंगी पताकाएं फहरा रही थीं । बीच में रत्न - जटित मण्डप था , उस पर स्वर्णतार - खचित वस्त्र पड़ा था । सभा में नर , नाग , दैत्य , दानव , असुर , देव , सभी उपस्थित थे। नागराज का सिंहासन सिंहल के बड़े- बड़े मुक्ताओं से सजाया गया था । वहां अनेक प्रकार के सुगन्ध - द्रव्य जल रहे थे । सभा -मण्डप के एक कोने में वादकों का एक दल मधुर वाद्य बजा रहा था । कुछ देर बाद एक प्रौढ़ पुरुष स्वर्ण-विमान पर सवार सभामण्डप में आया । दिव्याङ्गनाएं वह स्वर्ण विमान उठाए हुए थीं । बहुत - सी वारवनिताएं उसके आगे मंगलगान करती आ रही थीं । विमान के चारों ओर शुभ्रवसना कुमारिकाएं मंगलचिह्न लिए लाज -विसर्जन करती चल रही थीं । यही भोगिराज नागपति वज्रनाथ था । वज्रनाभ के सभामण्डप में आते ही सब बाजे बड़े जोर से बज उठे । सिंहद्वार पर दुन्दुभि गर्जने लगी। सभी लोग जयजयकार करते उठ खड़े हुए और घुटनों पर हाथ टेक खड़े रह गए । भोगिराज के सम्मुख सीधा खड़ा होने का किसी को आदेश न था । ठीक इसी समय मण्डप के बाहर दूसरी ओर दुन्दुभि बज उठी । और एक ही क्षण बाद वज्रवक्ष दशानन रावण हाथ में भीमकाय परशु और दैत्यपति सुमाली विकराल खड्ग लिए लाल वस्त्र पहने सभामण्डप में आ खड़े हुए । इन दो महातेजस्वी पुरुषों को देखकर सभा भीत - चकित रह गई । जो वाद्य सभा में बज रहे थे, स्तब्ध हो गए। आगन्तुक शत्रु हैं या मित्र , यह कोई भी न जान सका । नागराज वज्रनाभि घूर - घूरकर रावण की वज्रमुष्टि में गहे हुए परशु को देखने लगा । । परन्तु इसी समय दैत्य सुमाली ने आगे बढ़कर कहा - " स्वस्ति नागराज , मैं दैत्य सुमाली हूं और यह आयुष्मान् दशानन रावण मेरा दौहित्र तथा दिक्पति धनेश कुबेर का अनुज है। रावण का कुछ अभिप्राय है, जिसे वह अभी निवेदन करेगा। अभी आप हमारी यह स्नेहभेंट स्वीकार कीजिए । " इतना कहकर दैत्य - पति ने संकेत किया । दैत्य अनुचरों ने मद्य भाण्ड ला - लाकर नागराज के सम्मुख धर दिए । रत्न - मणियों की मंजूषाएं भी नागराज के सम्मुख खोल दीं । यह मूल्यवान स्नेहभेंट देख नागपति प्रसन्न हो गया । वह सिंहासन छोड़ उठ खड़ा हुआ। आगे बढ़कर उसने रावण को छाती से लगाकर सिर सूंघा और आंखों में आंसू भरकर गद्द होकर कहा - " स्वागत भद्र, जैसे लोकपाल धनेश मेरा मित्र है, वैसा ही तू है । तेरे पिता विश्रवा मुनि को मैं जानता हूं । " फिर उसने दैत्येन्द्र की ओर मुंह फेरकर कहा - “ दैत्यपति , आप तो मेरे पूज्य पितृव्य ही हैं । पितृ - चरणों ने आपसे मैत्री - लाभ किया है । आपका स्वागत , यह आसन है, विराजिए ! " नागपति ने दैत्येन्द्र सुमाली और दशानन रावण को अपने साथ सिंहासन पर बैठाया । सिंहासन पर बैठते ही वन्दीजन ने नागराज की वन्दना की । किन्नर और गन्धर्व गाने लगे । अप्सराएं नृत्य करने लगीं । इसके बाद नागराज के आदेश से मद्यपान चला । मरकत के पात्रों में मद्य भर - भरकर नागों ने अतिथियों के हाथ में दिए । ___ मद्य पीकर दैत्य संप्रहर्षित हुए । अवसर पाकर सुमाली ने दैत्यों को संकेत किया । दैत्यों ने मद्य -भाण्डों से मद्य उंडेल - उंडेल नागों को पिलाना आरम्भ कर दिया । नागराज ने हंसकर सुमाली दैत्य के हाथ से सुवासित मद्य लेकर पिया । धीरे - धीरे पान में संयत भाव