पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वाटिका: सप्त शष्कुलिका : सप्त जम्बुडिका: सप्त मुस्तका: गन्धं पुष्पं ताम्बूलं मांसं , सुराग्रभक्तं च बलिर्दातव्यः। तत : सम्पद्यते शुभम् । ” रावण का सारा अंग जड़ हो गया । इस काम में बहुत समय व्यतीत हो गया । अत : रावण के भाव– परिवर्तन को किसी ने नहीं देखा । अब चरक ने मन्त्र पढ़ा - “वाचे पुरुषमालभेत । ” मकराक्ष चरक के हाथ से पूत खड्ग लेने को आगे बढ़ा । परन्तु इसी समय एक बाण चरक के हलक और तालु को फोड़ता हुआ निकल गया । मकराक्ष ने देखा - अनगिनत राक्षसों ने चारों ओर से वह यज्ञ -स्थल घेर लिया है , और वे चारों ओर से बाण -वर्षा करते तथा दानवों का निर्दय संहार करते बढ़े चले आ रहे हैं । यह देखते ही मकराक्ष ने अपनी बगल में पड़ा नरसिंहा फूंका । पार्वत्य उपत्यकाओं तथा नगरवीथियों से सहस्रों दानवों के दल निकल -निकलकर राक्षसों से भिड़ गए । एक तुमुल संग्राम छिड़ गया । मकराक्ष वही मन्त्र - पूत यज्ञ -खग लिए हुंकार कर शत्रुओं पर पिल पड़ा । अकस्मात् अकम्पन उछलकर शक्ति लेकर मकराक्ष के सम्मुख आया । रावण ने चिल्लाकर कहा - “ उसे मेरे लिए छोड़ दो , मातुल ! दानवेन्द्र मेरा पशु है । ” और क्षण - भर ही में उन्मुक्त होकर रावण ने अकम्पन के हाथ से शक्ति लेकर मकराक्ष के हृदय में हूल दी । परन्तु मकराक्ष उछलकर बगल में हट गया । इससे प्रहार पूरा न पड़ा । अब वह एक परिघ लेकर रावण पर दौड़ा । रावण ने वज्र के समान तोमरों के निरन्तर आघात से मकराक्ष को जर्जर कर दिया । मकराक्ष लहू- लुहान होकर भूमि पर गिर गया । इस पर अनगिनत दानवों ने शक्ति , परिघ , शूल , मुद्गर लेकर रावण पर संयुक्त आक्रमण किया । यह देख सुमाली दैत्य गदा हाथ में ले उन पर टूट पड़ा । दैत्यपति की भीषण गदा की चोट से दानव झटपट मरने लगे । मकराक्ष उनकी लोथों में ढंप गया । परन्तु रावण ने उसका पैर खींचकर बाहर निकाला , फिर उसे अपने सिर के चारों ओर घुमाया और भूमि पर दे मारा । मकराक्ष का सिर फट गया । फिर भी वह मरा नहीं। पड़े - ही - पड़े उसने रावण का पैर खींचकर उसे गिरा दिया । अब दोनों योद्धा परस्पर गुंथ गए। रावण ने मकराक्ष का कवच नाखूनों और दांतों से चीर डाला तथा दोनों वीर निरस्त्र हो मुक्कों और लातों से एक - दूसरे को मारने तथा गुंथकर लुढ़कने लगे। रावण ने क्रोधोन्मत्त होकर इस प्रकार दानव को मथा जैसे आटा गूंधा जाता है । मकराक्ष ने बल लगाकर रावण को दूर धकेल दिया । परन्तु रावण ने उछलकर एक लात दानव की छाती में मारी । लात खाकर दानव रक्त - वमन करने और कराहने लगा । अब रावण ने मुक्के मार - मारकर उसकी पसलियां तोड़ डालीं । दानव की जीभ बाहर निकल आई , वह हांफने लगा । उसके नाक - कान और मुख से रक्त की धार बह निकली । इसी समय रावण ने अपनी वज्र भुजाओं में उसे सिर से ऊपर उठा लिया और धधकते हुए विराट हवन - कुण्ड में फेंक दिया । दानवेन्द्र मकराक्ष का ऐसा भयानक अन्त देख दानव चारों ओर भयभीत होकर भागने लगे । उन भागते हुए दानवों को राक्षसों ने झटपट मारना आरम्भ कर दिया । शेष दानवों ने शस्त्र भूमि पर रख , भूमि में गिरकर प्रणिपात किया । रावण ने हाथ का खड्ग हवा में ऊंचा उठाकर कहा - “ वयं रक्षाम :! सब कोई सुनो , आज से यह सुम्बा द्वीप और दानवों के सब द्वीपसमूह रक्ष- संस्कृति के अधीन हुए। हम राक्षस इसके अधीश्वर हुए। जो कोई हमसे सहमत है उसे अभय ; जो सहमत नहीं है उसका इसी क्षण शिरच्छेद हो । "