किशोरियां राजमहिषी मन्दोदरी का शृंगार करती हुई वीणा, मृदंग , मुरज , मुरली के साथ कोकिलकण्ठ से गान कर रही थीं । मौलसिरी और बकुल के पुष्पों की भीनी महक से वातावरण सुरभित हो रहा था । वसन्त की मकरन्द - गन्ध और विविध पुष्पों के सौरभ से रावण मस्त हो गया । वह सुवासित मद्य पी -पीकर कामदग्ध हो विरहियों के समान लम्बी लम्बी सांसें लेने लगा। __ आकाश में चन्द्रोदय हुआ । कभी वह चन्द्रमा की ओर देखता , कभी दूर तक फैले हुए सागर -विस्तार को । इसी क्षण लाज के भार से सिकुड़ी, पुष्पभार से लदे वृन्त की शोभा वाली मन्दोदरी को सखियों समेत धीरे - धीरे प्रमदवन में आते देखा । वह अधीर होकर दोनों हाथ फैलाकर आगे बढ़ा किन्तु कुछ सोचकर जहां का तहां रह गया । इस समय मन्दोदरी के अंग पर जैसे छहों ऋतुएं वास कर रही थीं । विविध पुष्पों के मनोरम और कलापूर्ण आभूषण धारण किए, जिन्हें किन्नरियों और दानव- कुमारियों ने गूंथा था । वह मूर्तिमती वनश्री दीख रही थी । उसकी देह में अंगराग लगा था , केशों में कल्पवृक्ष के फूल गुंथे थे। उसके नेत्र ऐसे थे जो बरबस मन को खींच लेते थे। पुष्ट नितम्ब , पूर्णचन्द्र - सा मुख, धनुष - सी बांकी भौंहें , गजराज की सूंड़ - सी सटकारी जंघाएं और नवपल्लव से भी कोमल उसके हाथ अनायास ही देखने वाले के मन को मोह लेते थे। एक चेटी ने कहा - “ भर्तृदारिके, देखो, वह सागर-तीर पर धवल रमणीय सारसों की पंक्ति कैसी भली लग रही है! " __ “ मनोरम है, किन्तु मैं श्रमित हूं ; आओ; यहां माधवी लतामण्डप में विश्राम करें। " मन्दोदरी लतामण्डप में रखी स्फटिक -शिला पर बैठ गई । सखियों ने उसे चारों ओर से घेर लिया । इसी समय एक चेटी ने आड़ में खड़े रावण को देख लिया । उसने मन्दस्मित संकेत करते हुए कहा - “ अरे, वह कौन है? " मन्दोदरी ने बड़े- बड़े कमल - से नेत्र उठाकर देखा उसके नेत्र लाज और चाह से भर गए । मन्द मुस्कान के साथ उसने कहा - “ आर्यपुत्र ही तो हैं । अब क्या करूं ? " रावण ने भी यह देखा । वह धीरे - धीरे आगे आया । मन्दोदरी ने खड़ी होकर कहा : " जयत्वार्यपुत्र ! इदमासनम् । ” " अये मन्दोदरि! आस्यताम् । ” “ यदार्यपुत्र आज्ञापयति । " दोनों स्फटिक -शिला पर बैठे । चेटियां दूर खिसक गईं । मन्दोदरी ने कहा - “ आपका मुख जल से भरे हुए मेघों के समान अश्रुक्लिन्न है, इसका क्या कारण है? ” “ आहा , काशकुसुम रेणु आंख में गिर गया , उसी से ! " मन्दोदरी ने व्यग्र भाव से चेटी को पुकारकर कहा - “ अरी, सुखोदक लाओ! " चेटी दौड़कर गई । सुखोदक ले आई । रावण ने मुख -प्रक्षालन किया। वह मन में सोचने लगा यह नवोढ़ा बाला मेरे मन की सच्ची व्यथा सुन क्या कहेगी ? यों तो यह धीर स्वभाव की दीख पड़ती है, परन्तु स्त्री -स्वभाव ही अधीर है। इसी से प्रिया से मुझे झूठ बोलना पड़ रहा है ।
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