पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/७०

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17. मधुयामिनी वक्रगतिका , क्षीणकलेवरा , विमलसलिला शैल नदी के समान दानव की बेटी मन्दोदरी की देहयष्टि थी । माधुर्य और सौकुमार्य का उसमें विचित्र सामंजस्य था । दानवों के राजप्रासाद में मणिा - माणिाक्य और शृंगार- सज्जा की कमी न थी । दासियों और चेटियों का भी अभाव न था । रावण की आज्ञा से दानवेन्द्र का मणिमहालय मन्दोदरी के लिए सज्जित किया गया । एक सहस्र दानव कुमारियां उसकी सेवा - शुश्रूषा के लिए नियुक्त कर दी गईं । उन्होंने कृशांगी मन्दोदरी को सुगन्धित उबटन लगा, सुगन्धित जलों से स्नान कराया । केशों में मधूच्छिष्ट - मृगमद लगा, चोटी गूंथ , उनमें मुक्ता गूंथे। कपोलों पर रोध्रसंस्कार किया , मस्तक पर हीरक - चन्द्र , कानों में नीलमणि - कुण्डल और कण्ठ में महार्घ मुक्ताओं की माला धारण कराई। कोमल क्षौम कंचुक से उन्नत स्तन -बन्ध किए। वक्ष पर कुंकुम – कस्तूरी - अगरु का लेप किया । भाल पर गोरोचन की श्री दी । अधरोष्ठों को ताम्बूल - रंजित किया । सर्पिणी के समान उसकी पदचुम्बिनी वेणी लटकने लगी । इन्द्र -नीलमणि की मेखला धारण करने से उसकी कटि की शोभा सागर के समान हो उठी। उसकी उज्ज्वल धवल दन्तपंक्ति , उसके लाल अधरोष्ठों से यत्किंचित् सीत्कार - सा करते हुए प्रश्वासों के साथ निकलती हुई, अप्रतिम सुषमा - प्रसार कर रही थी । उसके कमल के समान बड़े -बड़े नयनों में काजल की रेखा ऐसी प्रतीत होती थी , जैसे नई कटार पर फिर धार चढ़ा दी गई हो । उसकी बंकिम भौंहों के नीचे मदिर दृष्टि मद-वर्षा कर रही थी । वह पूर्ण चन्द्र के समान सुषमा वाली कृशोदरी , नख शिख शृंगार कर, विश्रुत विश्रवापुत्र मुनिकुमार रावण पौलस्त्य के सान्निध्य में जाने के कारण लाज के भार से सिकुड़ी - सी जा रही थी । इस प्रकार अकल्पित , अतर्कित रीति से प्राणरक्षा होने , अपनी अभिसार - नायिका का देखते - देखते ही वध होने तथा दानवों के द्वीप के साथ दानवपुत्री मन्दोदरी को प्राप्त करने के कारण रावण एकबारगी ही अस्त -व्यस्त हो उठा । अभी वह स्वस्थ नहीं था । परन्तु दिव्यस्वरूपा मन्दोदरी के लिए उसका सम्पूर्ण तारुण्य विकल हो रहा था । मनोरम सान्ध्य वेला थी । प्रबल पराक्रमी रावण उस समय प्रमदवन में विचरण कर द्वीप की सुषमा देख रहा था । चन्द्रमा की किरणे पर्वतीय प्रदेश में रजत - कण बिखेर रही थीं । शीतल - मंद- सुगंध समीर से हिल -हिलकर, वृक्षों से झड़ - झड़कर पुष्प बिखर रहे थे, जिनके कारण वहां का प्रदेश पुष्पमय हो गया था । चारों ओर पर्वत की छोटी - बड़ी परस्पर गुंथी हुई शृंखलाएं , उनके बीच में कान्तिमान् कर्णिकार के सघन वन , कदम्ब , मौलसिरी, चम्पा , नागकेसर , अशोक, आम, केवड़ा, चिरौंजी , नारियल और कटहल के वृक्ष शोभा दे रहे थे। रावण द्वारा अभय पाए हुए सुभट दानव तारुण्य से परिपूर्ण मदमाती स्त्रियों के साथ जहां - तहां विहार कर रहे थे। मधुर कण्ठ वाली किन्नरियों की स्वर - लहरी वायु में तैर रही थी , जिससे रावण का तारुण्य शत - सहस्त्रमुख होकर जाग रहा था । प्रासाद में अप्सराएं तथा दानव