“ केवल क्षण - भर मैंने तुम्हें बलि -यूप में बंधा हुआ देखा था , उसी क्षण मैंने अपने को तुम्हारे पादपद्म में अर्पित कर दिया । " “ यदि मैं बलि हो जाता । " " तो मैं भी ..। ” रावण ने प्यार- छलकती आंखों से मन्दोदरी की ओर देखकर कहा : “ अपरिचिता ही ? " “ और क्या ...। ” " क्या और ने भी कदाचित् यही सोचा। " " कौन ? " " वह दैत्यबाला । " “ वह बलि ? " " हां , प्रिय! ” " कौन थी वह ? " “ अभिसार - सखी! दो दिन पूर्व उसे प्रथम क्षण देखा, प्रणय हुआ , विग्रह हुआ , बन्दी हुआ। जलदेव से उसने मेरे जीवन की रक्षा की , और यहां बलि - यूप में बंधे-बंधे अपना जीवन दे मेरे प्राणों की रक्षा की । “ अहा, सुपूजिता है वह दैत्यबाला ! अभिनन्दन करती हूं। इसी से आर्यपुत्र के नेत्र वाष्पाकुल हैं ? ” “इसी से । कल भोर में उस हुतात्मा की स्मृति से विकल -विदग्ध जब मैं शून्य हृदय , शून्य दृष्टि से सूने सागर की लहरों को देख रहा था , दिव्यांगने , तूने न जाने कहां से पारिजात कुसुम कलिका – सी कहीं से अवतरित होकर मेरे विदग्ध प्राणों को शीतल कर दिया । कह सुभगे , किस देव की कृपा से ऐसा हुआ ? “ जलदेव की कृपा से जिसे तुमने जीवित दानवेन्द्र की आहुति दी ! ” वह हंस पड़ी । कुन्द- कली- सी धवल दन्तपंक्ति से रावण ने विमोहित हो मन्दोदरी को वक्ष से लगाकर कहा - “ उस जलदेव की जय हो ! " " अरे, यह क्या कह दिया ! " “ क्या हुआ ? " “ अनर्थ, अनर्थ! " " कैसा ? " " तुमने जलदेव का जय - जयकार किया। ” " तो फिर ? ” “ जलदेव तो दिक्पति वरुण हैं । वारुणेयों ने मेरी माता का हरण किया है। उन्हें तो तुमने विमर्दित करने का वचन दिया है। " “ अवश्य दिया है किन्तु उनके विमर्दित होने पर जो नए जलदेव होंगे उनकी जय , जय ! ” " वे कौन ? " " तेरे पितचरण, वैश्रवण रावण पौलस्त्य के अकारण मित्र । "
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