पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/७४

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" तुम धन्य हो , आर्यपुत्र! " " परन्तु मैं आर्य नहीं। " " आर्यपुत्र ! ” मन्दोदरी रावण के वक्ष से जा लगी । " अच्छा , अभी यही सही। भविष्य में मुझे रक्षपति कहना। " स्निग्ध चांदनी रात थी । समुद्र की आनन्ददायक वायु के झोंके आ - आकर युगल दम्पति के हृदयोल्लास को आन्दोलित कर रहे थे। रावण मुग्ध दृष्टि से मन्दोदरी को देख रहा था , जो चन्द्रज्योत्स्ना की रजत - प्रभा में हीरकमणि - सी दिप रही थी । दानव कन्याएं अलक्ष्य रहकर मंगल - गान कर रही थीं । सिंहद्वार पर बादलों की गर्जना के समान नगाड़े बज रहे थे। रावण अतृप्त दृष्टि से लज्जावनमिता , क्षीण कटि वाली मन्दोदरी को दृष्टि से मानो पी रहा था । मन्दोदरी ने मन्द मुस्कान से कहा : “ अब क्या सोच रहे हो ? " " तू ही कह । " " उसी महाभागा अभिसार सखी की बात । " " नहीं , तेरी। " "मेरी क्या ? " " तेरा कुसुम -कोमल , अमल - धवल -तरल गात्र है; जैसे छूने से ही मैला हो जाएगा । " मन्दोदरी ने बंकिम कटाक्ष करके पति की ओर देखा, फिर हंसकर कहा, “ छूकर देखो। ” " इतना तो यथेष्ट नहीं होगा , प्रिये! ” “यथेष्ट कितना होगा ? ” " तुझे समूची ही यदि मैं अपने में समा पाऊं तो । " " तो ? " “ आह, परम सुख की उपलब्धि हो ! " “ परम सुख की उपलब्धि करो तुम । " " तेरी अनुमति है, पर मेरा साहस कहां है! " " दानवेन्द्र मकराक्ष की जीवित आहुति देने में सब समाप्त हो गया ? " नहीं । देख रहा हूं , तुझे आक्रान्त करने योग्य साहस मुझमें कभी का है ही नहीं। " मन्दोदरी रावण के वक्ष से आ लगी। उसने मृदुल कण्ठ से कहा - “मैं तो तुम्हारी अनुगता हूं, दासी हूं। मुझसे तुम्हें सुखोपलब्धि हो , तो अहोभाग्य! " रावण ने मन्दोदरी का चुम्बन लिया और फिर कहा : “ सब कुछ अनिर्वचनीय - सा प्रतीत हो रहा है। " " क्या ? " " जैसे आज तेरे सान्निध्य में मेरा अहं गला जा रहा है... मैं जैसे खोया जा रहा हूं। " " ऐसा ही तो मैं अनुभव करती हूं, आर्यपुत्र! " “ क्या तेरे लिए भी यह नई अनुभूति है ? " " है तो । "