पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/७६

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18. स्वर्ण लंका में सम्पूर्ण वसन्त बीत गया । उसी मनोरम द्वीप में ताल , तमाल, हिन्ताल की सघन छाया वाले स्थलों से परिपूर्ण उस रम्यस्थली में नववधू दानवनन्दिनी मन्दोदरी के साथ रावण ने स्वच्छन्द मधुकाल व्यतीत किया । कभी मणिमहल के प्रतिबिम्बित कक्ष में , कभी उज्ज्वल फेनराशि से भरे हुए समुद्र- तट पर , कभी विहंगजन - कूजित वनस्थली में , कभी किसी शीतल पर्वत की उपत्यका में , कभी उस शान्त -स्निग्ध झील के निर्मल जल में प्रतिबिम्बित चन्द्र के कांपते हुए प्रतिबिम्ब के सान्निध्य में , युगल प्रेमियों ने अपने मधु दिवस यापन किए। दोनों ने दोनों में प्राणों का विलय किया । दोनों ने दोनों को अपना आत्मार्पण किया । रावण और मन्दोदरी का संयोग - शौर्य और श्रृंगार का संयोग था । अभाव में भाव की पूर्ति थी । कुलिश - कठोर पौरुष नारी की आंच पाकर पिघलकर मोम हो गया । यह रक्षपति रावण , जिसने अब तक अपने उदग्र जीवन में परशु और धनुष ही स्पर्श किया था , इस रमणीरत्न दानव - नन्दिनी कृशोदरी मन्दोदरी को स्पर्श कर आप्यायित हो गया । सम्पूर्ण वसन्त की मधुयामिनी सुवासित मद्य , सुधा - संगीत और पुष्पवल्लरी - सी प्रिया के मृदु-मधुर आलिंगन में व्यतीत हुई । यहीं उसने मातुल प्रहस्त द्वारा कुबेर धनपति का निमन्त्रण पाया । उसने अपने नाना से परामर्श कर सब मनोरथ संकल्प सोच-विचार लंका में प्रवेश करने का निर्णय किया । धूर्त सुमाली ने देखा, यही वह स्वर्णक्षण है । अब सभी पार्श्ववती द्वीप जय कर लिए गए थे। सभी जगह रावण की रक्ष- संस्कृति की दुहाई फिर गई थी । देव , दैत्य , दानव , नाग, असुर , यक्ष, जो रावण की रक्ष - संस्कृति स्वीकार कर लेता था , वही राक्षस नाम से अपने को सम्बोधित करता था । इस प्रकार राक्षसों की एक नई संयुक्त महाजाति संगठित हो चली थी , जिसमें भारतीय महासागर के दक्षिणांचल में फैले हुए द्वीपों में बसने वाले देव , दैत्य , दानव , नाग, असुर, यक्ष - सभी सम्मिलित थे। सभी का एक ही नारा था - " वयं रक्षाम :। ” इसी नारे के नाद पर रावण के विकराल परशु के नीचे दक्षिणांचल में फैली हुई सारी ही असुर जातियां एक सूत्र में गुंथ रही थीं । यह सूत्र था ‘रक्ष संस्कृति और उसका प्रस्तोता था रावण पौलस्त्य - राक्षसों का अधिपति । उसने उन द्वीपों के राज्य- प्रबन्ध , व्यवस्था और सुरक्षा का उत्कृष्ट प्रबन्ध किया । दानवों के इस द्वीप - समूह का राज्याधिकारी मामा अकम्पन को बनाया , तथा बाली द्वीप , यव द्वीप, मलय द्वीप का राज्यभार विश्वस्त राक्षसों को देकर , सुमाली को संग ले , रावण ने बहुत - से विश्वस्त और सुभट राक्षसों के साथ तरणियों में बैठ , द्वीपों से प्राप्त बहुत - सा स्वर्ण रत्न साथ ले लंका की ओर प्रस्थान किया । सुमाली दैत्य की चिर अभिलाषा सम्पूर्ण हुई। लंका में रावण का कुबेर ने यथावत् सत्कार किया । उसे पृथक् महल रहने को दिया । प्रेम और सौहार्द से सब सुविधाएं प्रस्तुत कर दीं । साथ ही बहुत - सी धन - सम्पदा भी दी । उसने स्पष्ट कहा - “ भाई, यह लंका जैसी मेरी है, वैसी ही तुम्हारी भी है। इसलिए मेरे राज्य में तुम