पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सुख से रहो। ” परन्तु रावण के तो उद्देश्य और दृष्टिकोण ही कुछ और थे। वह न केवल दक्षिण की इन सब अनार्य जातियों को एक सूत्र में बांधकर एक सम्मिलित नई जाति राक्षसों की बनाना चाहता था , वरन् वह आर्यों और अनार्यों के भेद को भी नष्ट कर देना चाहता था , वास्तव में उसमें आर्य और अनार्य दोनों ही रक्तों का मिश्रण था , इसलिए वह चाहता था कि दोनों जातियां सब भेदभाव भूलकर एक हो जाएं । इसीलिए उसने वैदिक - अवैदिक सारी प्रथाओं और परम्पराओं को मिला - गलाकर ‘ रक्ष - संस्कृति की स्थापना की थी । वयं रक्षाम: उसका नारा था । वह कोई राज्य का वैसा लोलुप न था , परन्तु शौर्य विक्रम उसमें बहुत था । वह जानता था , जब तक लंका पर राक्षसों का अकंटक राज्य न हो जाएगा, राक्षसों की यह जाति प्रतिष्ठित नहीं होगी। इसी से वह सुमाली के बढ़ावे में आ गया । परन्तु अब, जब उसने लंका की समृद्धि देखी, कुबेर का वैभव देखा, सौध, हर्म्य, वीथी. राजमार्ग देखे, मणिरत्न और स्वर्ण के भण्डार देखे, नगर - कोट राज - प्रासाद , नन्दन वन , अशोक वन , और हाट देखे, तो वह लंका पर मोहित हो गया । उसने यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि लंका की केवल भाौगोलिक स्थिति ही नहीं , उसकी राजनीतिक स्थिति भी ऐसी है कि इसी द्वीप से सारे दक्षिण - तट पर राक्षसों का अनुशासन कायम किया जा सकता है । परन्तु कुबेर उसकी सबसे बड़ी बाधा था । कुबेर ही क्यों , यक्ष जाति भी उसके उद्देश्य की पूर्ति में बहुत बड़ी बाधा थी । रावण ही की भांति कुबेर दिक्पाल ने भी यक्षों की एक नई जाति देव , दैत्य , दानव, असुर और नागों में से संगठित की थी । उसका नारा था -‘ वयं यक्षाम : अर्थात् , हम भोगेंगे । इसका अभिप्राय यह था कि विश्व के भोग - ऐश्वर्य हम भोगेंगे । यह नारा बरा न था । फिर धनपति कुबेर किसे नहीं रुचेगा ! बस , बहत - से नाग , देव , दैत्य , असुर उसकी यक्ष - संस्कृति के अधीन हो गए। यक्षों का काम खूब भोग -विलास करना , मद्य पीना , खूब खाना -पीना और मौज करना था । कुबेर ने सभी यक्षों को धन सम्पदा से सम्पन्न कर दिया था । इसी से लंका में यक्ष खूब मौज -मजा करते थे। दिक्पति कुबेर की छत्रछाया में उन्हें किसी बात का भय न था । परन्तु रावण ने आकर उनकी सारी व्यवस्था ही भंग कर दी । उसके नव - दीक्षित राक्षस वयं रक्षाम : का नारा लगाते , जहां तहां उपद्रव करते , यक्षों को चिढ़ाते , कभी - कभी मारपीट भी कर बैठते थे। शस्त्राघात भी होने लगे । यक्षपति ने समझा था कि जैसे शान्तिपूर्वक हम यहां रहते हैं उसी तरह रावण भी रहे, खाए-पिए, मौज - मजा करे। सभी तो कहते हैं - वयं यक्षाम :! बहुत अच्छा मूलमन्त्र है । तभी तो नाग , असुर , देव, दैत्य , दानवों ने अपने कुलधर्म का यक्ष जाति में संगठित होना पसन्द किया है । फिर यह रावण क्यों नए उपद्रव खड़ा करता है ? यह नई ‘रक्ष- संस्कृति क्या बला है ? धीरे - धीरे लंका में बहुत उपद्रव होने लगे । वहां का वातावरण बहुत क्षुब्ध हो उठा । यक्ष लोग राक्षसों से डरकर घर में छिपकर बैठने लगे । राक्षस जहां किसी इक्के - दुक्के यक्ष को देखते , वे वयं रक्षाम: का नारा उठाते । समर्थन न होने पर परिघ , शूल , परशु चलाकर उसे मार डालते। फिर भून- पकाकर खा डालते थे, धीरे - धीरे राक्षसों के ये अत्याचार इतने बढ़ गए कि एक बार धनपति कुबेर ने रावण से बातचीत की । कुबेर ने कहा - आयुष्मान् रावण !