पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/७९

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“ इसी से क्षमा करता हूं । इसी से मैंने उसे अपनी लंका में आने दिया । " "लंका आपकी नहीं , मेरी है। परन्तु इस बात को जाने दीजिए। इस द्वन्द्व का कैसे निराकरण हो , इसका निर्णय अपने पूज्य पिता पर छोड़िए। उनसे जाकर परामर्श लीजिए। वे जैसा कहें वही कीजिए। आप दोनों ही के वे समान हितैषी हैं । पिता हैं । " कुबेर ने कहा - “ तथास्तु ! ” रावण ने भी कहा - “ तथास्तु ! ” कुबेर ने कहा - “ वयं यक्षाम :। " रावण ने कहा - “ वयं रक्षाम :। " दोनों एक - दूसरे को घूरते हुए क्रुद्ध और क्षुब्ध अपने - अपने निवास पर चले गए । कुबेर सब बातों का आगा-पीछा समझ और रावण तथा उसके साथी राक्षसों का उद्धत स्वभाव देख पुष्पक पर सवार हो अपने पिता विश्रवा मुनि के आश्रम में आन्ध्रालय में पहुंचा। पिता का विधिवत् पूजन कर , बद्धांजलि हो कुबेर ने कहा - “ रावण को मैंने अपना अनुज समझ लंका में आदर सहित बुला स्थान दिया था । अब वह वहां नित नए उपद्रव मचा रहा है । उसने वहां एक रक्ष- संस्कृति स्थापित की है, वह परशु ऊंचा करके कहता है - वयं रक्षाम :। जो कोई असहमत होता है , उसका तत्काल शिरच्छेद कर देता है । मुझसे वह युद्ध करने को तैयार है और उसके साथी राक्षसों ने यक्षों के नाक में दम कर रखा है । न रावण न उसके ये राक्षस . लंका में किसी की आन मानते हैं । जिनका जी चाहे. उसी का सिर काट लेते हैं । देखते - ही - देखते बहुत -से लंका के शान्त , शिष्ट निवासी देव , दैत्य , असुर , नाग , दानव उसी रक्ष -संस्कृति में सम्मिलित होकर वयं रक्षाम: का नाद करते और जो विरोध करे उसी का सिर काटते फिरते हैं । बालक और छोटा भाई जानकर मैंने उसे अभी दण्ड नहीं दिया है। " सारी बातें सुनकर दूरदर्शीविश्रवा मुनि बोले - “ पुत्र तुमने जो कहा , वह मैंने सुना । इस सम्बन्ध में सब बातें मैं जानता हूं । अब तुम मेरी बात ध्यान से सुनो ! यह रावण बहुत खटपटी, उग्र - स्वभाव और उच्चाकांक्षी है । उसके पास वीरों का अच्छा दल है। उन्हीं की सहायता से उसने भारत सागर के सभी द्वीप - समूहों को जीत लिया है । ऐसी अवस्था में अब लंका में अकेला तुम्हारा रहना सुरक्षा के विचार से ठीक नहीं है । ____ “ दूसरी बात यह कि सब झगड़ों की जड़ उसका नाना सुमाली और उसके पुत्र उसके साथ हैं । यह लंका तो पुत्र , पहले सुमाली दैत्य ही की थी । जब मैंने वहां तुम्हें बसाया था , तब सुमाली का कुछ पता ही नहीं था । मैं जानता था कि वह हिरण्यपुर के देवासुर संग्राम में मारा गया । अब यह न जाने कहां से धरती फोड़कर निकल आया। इसकी पुत्री ने मुझसे ऋतुकामना की - सो मैंने धर्म के विचार से वह स्वीकार कर ली । इसी से यह रावण और इसके भाई- बहन उत्पन्न हुए। मैंने इन्हें वेद पढ़ाया , पर ये सब मेरे प्रभाव में नहीं अपने नाना और मामा के प्रभाव में हैं । वही उसे उकसाकर ले गया और लंका पर उसका दांत है । लंका के निवासी भी सब उन्हीं के भाई- बन्धु दैत्य , असुर, नाग और दानववंशी हैं । इससे पुत्र, तेरे भले की बात मैं तुझसे कहता हूं कि तू इस उपद्रवी से युद्ध के झंझट में न फंस। तू लंका को छोड़ दे और गन्धमादन पर्वत पर अलकापुरी बसा , वहीं सुख से रह । वह स्थान बड़ा मनोरम है । शंकर का सान्निध्य है । मन्दाकिनी - गंगा है, यमुना है। वहां अनेक सरोवर हैं