साँचा:सही23. पुरुरवा और उसके वंशधर चन्द्र - पुत्र बुध अपने श्वसुर वैवस्वत मनु के साथ भारत में आ बसे थे यह पाठक जानते हैं । उन्होंने गंगा - यमुना के संगम पर प्रतिष्ठान नगरी बसा चन्दवंश की स्थापना की थी । बुध बड़े भारी अर्थशास्त्री और हस्तिशास्त्री थे। अपने दादा दैत्य - गुरु शुक्र से उन्होंने ये विद्याएं सीखी थीं । उनके पुत्र पुरुरवा और भी प्रतापी हुए । उन्हें अपने पिता का प्रतिष्ठान का राज्य तो मिला ही , पितामह का इलावर्त का राज्य भी मिला । अत : उनका महत्व असुर -प्रदेश से आर्यावर्त तक व्यापक हो गया । उन्होंने चौदह द्वीप जय किए । केवल इतना ही नहीं, पुरुरवा मन्त्रद्रष्टा ऋषि भी थे। वे बड़े ही तेजस्वी, सत्यवान्, अप्रतिम स्वरूपवान् और दानशील थे। उन्होंने अनेक यज्ञाग्नियों का आविष्कार किया था । पुरुरवा के दादा चन्द्र ने उन्हें एक दिव्य रथ दिया था , जिसका नाम सोमदत्त था । यह रथ हरिण - केतन का था । उनके प्रासाद का नाम मणिहर्म्य था । ___ मरीचि - पुत्र सूर्य और दिक्पति वरुण भाई भी थे और बान्धव भी । वरुण दैत्यगुरु शुक्र के दामाद थे और सूर्य शुक्रपुत्र त्वष्टा के दामाद। इस प्रकार वरुण सूर्य के फूफा हो गए थे। एक बार ऐसा हुआ कि मरीचि - पुत्र सूर्य ने उरपुर की अप्सरा उर्वशी को अपने विलास कक्ष में बुलाया । देवलोक में ऐसी ही परिपाटी थी । उन्होंने वैयक्तिक कुटुम्ब - प्रथा पूर्णतः स्थापित नहीं की थी । धन- सम्पत्ति , स्त्री - पुत्र , किसी पर भी देवलोक में व्यक्तिगत अधिकार न था । सब कुछ सार्वजनिक था । उर्वशी सोलह शृंगार कर मरीचि - पुत्र सूर्य के पास विलास कक्ष में जा रही थी । छहों ऋतुओं में खिलने वाले सुगन्धित पुष्पों के आभूषण पहने , देह में अंगराग लगाए, केशों में अम्लान पारिजात - पुष्प गुंथे, वह अपूर्व शोभा की निधि लग रही थी । उसके बड़े- बड़े नेत्र आकर्षक थे । उसका चन्द्रबिम्ब - सा मुख, बंकिम भौंहें , गजराज की सूंड के समान जंघाएं , सुडौल भारी नितम्ब और स्वर्ण - कलश से सुढार कुचों को देख प्राणिमात्र में काम -संचार हो रहा था । मार्ग में उसे दिक्पाल वरुण मिल गए । उस समय उर्वशी के श्रृंगार और रूप - वैभव को देख दिक्पाल वरुण काम -विमोहित हो गए और उसे अपने विलास -कक्ष में चलने को कहा। परन्तु उर्वशी ने विनम्र भाव से दिक्पाल वरुण को कहा - “ देव , इस समय तो मेरी यह देह आपके छोटे भाई सूर्यदेव के अधीन है । उन्हीं के लिए मैंने यह श्रृंगार किया है। उन्हीं के बुलाने पर मैं उन्हें रति - संतुष्ट करने को जा रही हूं । इसलिए आपका मनोरथ मैं पूरा नहीं कर सकती। ” परन्तु वरुण ने उसका अनुनय स्वीकार नहीं किया । उसे जबर्दस्ती अपने विलास -कक्ष में ले गए । वरुण - देव की सेवा से निवृत्त होकर जब वह सूर्यदेव के निकट पहुंची, उस समय उसका श्रृंगार खण्डित हो गया था , आभूषण तितर-बितर हो चुके थे, पुष्पाभरण दल - मल कर श्रीहीन हो गए थे। उसकी दशा मत्त गज द्वारा मथित कमलिनी की - सी हो रही थी । उसकी यह दशा देख और इतने विलम्ब से आने के कारण सूर्यदेव अत्यन्त क्रुद्ध हुए । वह पीपल के पत्ते की भांति कांपती हुई सूर्यदेव
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