24. वाघ्नि मनु और बुध का इलावर्त छोड़कर भारत में चला आना इन्द्र के लिए एक प्रिय और महत्त्वपूर्ण कारण बन गया । वह महत्त्वाकांक्षी और खटपटी तो था ही , अब वह इस समय देवों का एकमात्र कर्ता-धर्ता और नेता बन गया । विष्णु में अब विरोध की सामर्थ्य नहीं रही थी और उसका उत्तराधिकारी भारत में आर्यावर्त की स्थापना कर चुका था । इस प्रकार एक प्रबल प्रतिस्पर्धी उसके मार्ग से हट गया था । अब उसने भी अपने साम्राज्य के विस्तार पर दृष्टि डाली। इस समय इलावर्त में एक बड़ी घटना घटी । पाठक इन्द्र की महत्त्वाकांक्षा को भूले न होंगे । वह इस समय देवों का नेता बन गया था । पाठक यह भी जानते हैं कि इलावर्त के पश्चिम प्रदेश के मित्तन्नु और दक्षिण के उस ओर उमा आदि बेबीलोनियन जाति की रियासतें उसकी मित्र थीं तथा उत्तर के पर्शियन प्रबल शत्रु थे। अत : उसने अब पूर्व की ओर अपना प्रसार किया और पंचसिन्धु की सीमा पर अपनी देव - सेना लेकर आ धमका। उस समय, वर्तमान सिन्ध और पंजाब के उस संयुक्त क्षेत्र को , जिसे आज पाकिस्तान कहते हैं , सप्तसिन्धु कहते थे। उसका अधिपति असुर - याजक भृगुवंशी - त्वष्टा का पुत्र वृत्र था । यह दासों का नेता था । वृत्र बड़ा धर्मात्मा , तेजस्वी और बलवान् था । मरीचि - पुत्र सूर्य तथा विष्णु वृत्र को बहुत मानते थे। वृत्र का तेज अपरिसीम था । सप्तसिन्धु प्रदेश में उन दिनों दासों के अनेक खण्डराज्य थे, जिनका नेता और अधिपति वृत्र था । इन्द्र से त्वष्टा का मित्रभाव न था , द्वेष ही था । इसी बहाने को लेकर इन्द्र ने वृत्र पर चढ़ाई कर दी । इन्द्र पर सूर्य-विष्णु की कृपा थी । उनसे इन्द्र ने स्पष्ट कह दिया कि आप इस मामले से दूर रहें , मैं वृत्र का वध कर उसके राज्य को जय करूंगा। वृत्र विष्णु को बहुत मानता था । सारे दास ही विष्णु को वृत्र का बहनोई समझकर मान करते थे। यह किसी को आशा न थी कि विष्णु की सलाह से सब काम करने वाला इन्द्र उस पर आक्रमण कर देगा । परन्तु सूर्य-विष्णु बड़े दीर्घदर्शी थे। उन्होंने सोचा, हमारे पुत्र मनु और दामाद बुध भरतखण्ड में आर्य- राज्य स्थापित कर चुके हैं । अत : यह अच्छा ही है, यदि सप्तसिन्धु में देवों की जय हो जाए। इससे आर्यावर्त और देवलोक दोनों ही परस्पर सम्बन्धित हो जाएंगे तथा दैत्यों और असुरों से युद्ध के समय देव और आर्य परस्पर सहायता कर सकेंगे । इन्हीं सब बातों को विचारकर विष्णु ने चुप्पी साध ली । दुर्भाग्य से दासों में परस्पर फूट थी । उनके सब खण्डराज्य स्वतन्त्र थे। इसी से वे सम्पन्न होने पर भी अपना साम्राज्य न बना सके । इसी से इन्द्र को उन्हें नष्ट करने में बहुत सुविधा मिली । उसने त्वष्टा के पुत्र त्रिशिरा विश्वरूप को अपना पुरोहित बनाने का प्रलोभन दे, अपने पिता से वज्र ला देने को राजी कर लिया । विश्वरूप त्वष्टा का ज्येष्ठ पुत्र असुरों का भानजा था । इन्द्र ने दासों में से दिवोदास और सुदास - तुर्वशु और यदु को अपने साथ
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