पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/९३

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मिलाकर उन्हें अभय -वचन दिया । अर्ण और चित्ररथ नामक दो भरत - राजाओं ने उसका विरोध किया ; इस पर उसने उन्हें मरवा डाला । ___ इन्द्र बड़ा खटपटी और क्रूर था । अपनी कार्य- सिद्धि के लिए वह सब कुछ कर गुजरता था । उसने इस अभियान में मरुतों से सन्धि कर उन्हें भी अपने साथ ले लिया । आजकल का बिलोचिस्तान उन दिनों मरुतों का ही देश था । इन्द्र ने बड़ी बुद्धिमानी से यह युद्ध- योजना बनाई थी । देवों और असुरों के दो अयोध्य नगर थे। उनके बीच में इन्द्र ने उरग , करोटि , पयस्सहारी, मदनयत और महन्त ये पांच रक्षक सैनिक - केन्द्र नियत किए । इस प्रकार यह दसवां महत् देवासुर संग्राम सप्तसिन्धु में छिड़ गया । दासों में फूट होने पर भी वृत्र ने ऐसा विकट युद्ध किया कि देवसेना छिन्न -भिन्न हो गई और इन्द्र युद्धभूमि छोड़कर भाग खड़ा हुआ। अब सब खिन्न और खण्डित देवगण मन्दराचल के शिखर पर एकत्र हो वृत्र को जय करने के सम्बन्ध में परामर्श करने लगे । __ इन्द्र ने कहा , “ देवगण, इस समय हम पराजित और खण्डित हैं । हमारे सामर्थ्य का क्षय हो चुका है । वृत्र हमसे बहुत प्रबल है । वह बड़ा विक्रमशाली है । वह देव - दैत्य सभी से पूजित है, इसलिए इस सम्बन्ध में हमें क्या करना चाहिए इस पर विष्णु का परामर्श लेना हितकर होगा। " विष्णु ने देवों को सलाह दी , “ अच्छा यही है कि वृत्र से सन्धि कर ली जाए। वह अजेय पुरुष है और उसकी पीठ पर पराक्रमी दैत्य -दानवों का वंश है। दास भी कम विक्रमशाली नहीं हैं । फिर वैजयन्तपुर का तिमिध्वज शम्बर उसका मित्र है, इन सब बातों पर विचार कर उससे सन्धि कर लो । ” देवों को विष्णु की सलाह पसन्द आई । उन्होंने वृत्र के पास सन्धि के दूत भेजे। दूतों में ऋषिगण भी थे - देवगण भी । वृत्र ने देव - दूतों का अर्घ्य- पाद्य से सत्कार करके कहा , " हे ऋषियो, हे देवो , आपके आने का क्या अभिप्राय है ? मैं क्या करके आपको प्रसन्न करूं ? " ऋषियों और देवों ने कहा - " हमारे आने का अभिप्राय यह है कि यह देवासुर संग्राम समाप्त हो जाए। देव - दैत्य सभी दायद -बान्धव हैं , बन्धुभाव से रहें । आप कृपाकर देवराट् से सन्धि कर लीजिए। " वृत्र ने कहा - “ दो तेजस्वी पुरुषों में मित्रता नहीं हो सकती। " “किन्तु एक बार तो सज्जनों का संग हो ही जाए, पीछे जो होगा वह होगा । सत्संग ही हमारी प्रार्थनीय वस्तु है । सत्संग से मित्रता दृढ़ होती है। धीर पुरुष के लिए मित्रता संकट में सहारा देती है, अर्थकष्ट के समय वही धनरूप हो जाती है। सज्जनों का समागम अमूल्य और प्रयोजनीय है । आप धीर, वीर , सत्यवादी और ज्ञानी हैं । आपका पवित्र याजक कुल है । आप देव - दैत्य दोनों के पूज्य पुरुष हैं , धर्मज्ञ और सूक्ष्मदर्शी हैं । इसी से हम विश्वास कर आपकी सेवा में आए हैं । " ऋषियों और देवों के ये वचन सुन वृत्र ने हंसकर कहा - “ इन्द्र बड़ा कुटिल है । वह पीछे विश्वासघात करेगा उसका विश्वास क्या ? अत : आप सत्य ही मुझसे मित्रता चाहते हैं , तो मैं प्रसन्न हूं। परन्तु सूर्यदेव हमारे बहनोई और आपके बान्धव हैं । वे हमारे बीच रहें । ” । देवों ने स्वीकार किया । इन्द्र और वृत्र में सन्धि हो गई । इन्द्र ने बड़ा शिष्टाचार प्रकट किया । देवगण दासों से हिलमिलकर सोमपान करने और हास -विलास करने लगे ।