पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/९५

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साँचा:गलत25 . देवेन्द्र नहुष इन्द्र के इस प्रकार पलायन करके छिप जाने से देव - लोक में अव्यवस्था फैल गई । अन्त में देवों ने नहुष को ही ऐन्द्राभिषेक कराकर इन्द्रासन पर बैठा दिया । सभी दैव - दैत्य , ऋषि, पितृगण , दानव और असुरों ने एकमत हो चक्रवर्ती नहुष को इन्द्र स्वीकार कर लिया । इन्द्र - पद पाकर अब राजर्षि नहुष त्रिभुवन के स्वामी हो गए । वे अप्सराओं के साथ नन्दनवन में विहार करने लगे । उन्होंने कैलास , हिमवान् , मन्दराचल , श्वेतपर्वत , सह्याद्रि , महेन्द्र , मलय आदि पर्वतों , समुद्रों , नदियों में विविध भांति विहार किया। सब प्रकार ऐश्वर्य और विलास के साधन पा , दिव्यांगनाओं और अप्सराओं से सान्निध्य में रहकर महावीर्यवन्त नहुष क्रीड़ा और कामभोग में रत रहने और सोमपान करने लगे ।

  • अब उन्होंने इन्द्राणी पौलोमी शची को शृंगार करके अपनी शय्या पर आने की

आज्ञा दी । परन्तु पौलोमी शची ने नहष की अंकशायिनी होना स्वीकार नहीं किया । उसने कहा - “ में अपने प्रिय देवराट् इन्द्र की पत्नी हूं । मैं उसी की शय्या पर आ सकती हूं। " नहुष ने कहा - “मैं ही अब देवराट् इन्द्र हूं। मैं देवलोक और मनुष्य - लोक का स्वामी हूं । इन्द्राणी अब मेरी भोग्या है । यह मर्यादा के विपरीत नही है। " इन्द्राणी ने कहा - “ आपने मेरे पति को न युद्ध में जीता है, न उसने मुझे जुए के दांव में हारा है । फिर कैसे आप मुझ पर अधिकार रखते हैं ? ” किन्तु नहुष ने अपना हठ नहीं छोड़ा । देवों ने समझा- बुझाकर पौलोमी शची को नहष के पास भेजने का निश्चय कर लिया । देव -याजक आंगिरस बृहस्पति ने भी नहष को समझाया कि पौलोमी शची के साथ बलात्कार करना ठीक नहीं है । परन्तु नहष ने यही कहा - “ वह मेरी विजित वस्तु है। उस पर मेरा वैसा ही अधिकार है, जैसा इन्द्र के इन्द्रासन पर। " आंगिरस बृहस्पति ने कहा - “ देवराज , प्रसन्न होकर क्रोध रोकिए। प्रसन्न हजिए । इन्द्राणी पुलोमा दैत्यराज की पुत्री है। उसने देवराट् का वरण किया था । इसलिए आप उस पर बलात्कार न करें । " नहुष ने कहा - “ देवराट् बड़ा ही निन्दित , गर्हित पुरुष था । उसने पितृवध किया , यतियों को कुत्तों को खिलाया और ब्रह्महत्या की । मैं देवराट् हूं, फिर क्यों नहीं शची मुझे पतिभाव से ग्रहण करेगी ? क्या मैं इन्द्र नहीं हूं ? " बृहस्पति ने कहा - “ आप महातेजवान् हैं , इन्द्र से भी बढ़कर हैं ? " " तो शची को मेरी शय्या पर आना चाहिए । " विवश देवों ने शची को नहुष के पास भेज दिया । क्रोध और शोक से अभिभूत शची पौलोमी आंसू बहाती नहर के पास जा खड़ी हई । परन्तु उसने नहष की शय्या का आरोहण स्वीकार नहीं किया । नहुष के आग्रह और अनुनय सभी को उसने अस्वीकार कर दिया ।