पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उधर नहुष के इस कार्य से देव , दैत्य , ऋषि सभी अप्रसन्न हो गए। अन्त में देवों ने मिलकर नहुष को इन्द्रपद से च्युत कर दिया और उसे देवलोक से निष्कासित कर दिया । नहुष का छोटा भाई रजि बड़ा पराक्रमशील तरुण था । उसने देवासुर - संग्राम में देवों का पक्ष लेकर विकट युद्ध किया था । देवासुर - संग्राम से प्रथम रजि से दैत्यों ने अपने पक्ष में होकर युद्ध करने की प्रार्थना की थी । तब रजि ने यह शर्त रखी थी कि यदि दैत्य मुझे अपना इन्द्र बनाएं तो मैं अपने सौ परिजनों सहित उनका पक्ष लेकर देवों से युद्ध करूं । परन्तु दैत्यों ने स्पष्ट कह दिया कि हमारा इन्द्र प्रह्लाद है और हम उसी के इन्द्रपद के लिए देवों से युद्ध करते हैं । इस पर रजि ने देवों का पक्ष लिया । इन्द्र ने रजि से कहा - “ आप ही सब देवों के इन्द्र हैं और मैं आपका पुत्र हूं। ” इससे प्रसन्न होकर रजि ने इन्द्र के लिए युद्ध किया । पर पीछे इन्द्र के भाग जाने और त्रिशिश को मरवा डालने के कारण देवों और ऋषियों ने उसके बड़े भाई नहुष को ही इन्द्र बना दिया था । अब नहुष को इन्द्रासन से च्युत कर देवलोक से निकाल देने पर क्रुद्ध होकर रजि ने इन्द्रासन पर जबर्दस्ती अधिकार कर लिया और अपने सौ परिजनों को देवलोक की सारी व्यवस्था दे दी । उसके भय से इन्द्र इधर - उधर मारा -मारा फिरने लगा । तब उसने आंगिरस बृहस्पति से कहा - “ हे देवगुरु , आप किसी तरह रजि से मेरा इन्द्रासन मुझे दिलाइए। बृहस्पति ने तब युक्ति कर चार्वाक -दर्शन का निर्माण किया, जिसमें वाद- प्रतिवाद- प्रयोजन से संयुक्त , वेद-विरोधी तर्कों और अतितों से संयुक्त हेतुवाद निहित था । उसने उसी के अनुसार राज - काज चलाने की रजि को सलाह दी । इसके परिणामस्वरूप रजि से सब देव - ऋषि बिगड़ गए और उसके परिजनों में भी रागद्वेष उत्पन्न हो गया , उनमें फूट पड़ गई। फलस्वरूप फिर बारहवां देवासुर - संग्राम हुआ । इस प्रकार बारह देवासुर- संग्राम होने के बाद रजि की जय के साथ उनकी समाप्ति हुई । ये देवासुर - संग्राम तीन सौ वर्षों तक निरन्तर चलते रहे और परिणाम अन्त में यह हुआ कि देवों तथा दानवों का सारा भाईचारा टूट गया । वे दायाद -बान्धव न रहकर अब पृथक् स्वतंत्र जातियों में विभाजित हो गए । उनके पारस्परिक रोटी- बेटी - सम्बन्ध भी बन्द हो गए।