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वरदान
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आकर उसका प्रत्युत्तर देता है और दोनो तत्क्षण यह विरहा रचते हैं। इस जाति में कवित्व शक्ति अत्यधिक है। इन विरहो को ध्यान से सुनो तो उनमे बहुधा उत्तम कवित्व-भाव प्रकट किये जाते है। पेशवाजवाले पुरुप ने प्रथम जा विरहा कहा था, उसका यह अर्थ था कि ऐ धोबी के बच्चो। तुम किसके द्वार पर आकर खड़े हा? दूसरे ने उत्तर दिया अब न अकबर शाह है, न राजा भोज, अब जो है हमारे मालिक है, उन्ही से मॉगा। तीसरे विरहे का अर्थ यह है कि याचको की प्रतिष्ठा कम होती है, अतएव कुछ मत मॉगो गा बजाकर चले चलो, देनेवाला बिन माॅगे ही देगा। घण्टे भर से ये लोग विरहे कहते रहे। तुम्हें प्रतीति न होगी, उनके मुख से विरहे इस प्रकार वेधड़क निकलते थे कि आश्चर्य होता था । स्यात् इतनी सुमता से वे बातें भी न कर सकते हो। यह जाति वडी पियक्कड़ है। मदरा पानी की भॉति पीती है। विष ह में मदिरा गौने में मदिरा, पञ्चायत में मदिरा, पूजा पाठ मे मदरा, पुरस्कार माॅगेंगे तो पीने के लिए। धुलाई माँगेंगे तो यह कहकर कि आज पीने के लिए पैसे नहीं है। विदा होते समय वेचू धोबी ने जो विरहा कहा था, वह काव्या- लकार से भरा हुआ है।

तुम्हारा परिवार इस प्रकार बढ़े जैसे गंगाजी का जल। लड़के फूलें फलें जेसे ग्राम का वौर। मालकिन का सोहग सदा बना रहे, जैसे दूर की हरियाली।' कैसी अनोखी कविता है?

तुम्हारी,
 
विरजन'
 

( ७ )

‘प्यारे
मझगाँव
 

एक सप्ताह तक चुपचाप रहने की क्षमा चाहती हूॅ। मुझे इस सप्ताह में तनिक भी अवकाश न मिला। माधवी बीमार हो गयी थी, पहिले तो कुनैन की कई पुड़िया खिलायी गयीं। पर जब इससे लाभ न हुआ और उसकी दशा और भी बुरी होने लगी, तो दिहलूराय वैद्य बुलाये गये ।