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वरदान
१२
 

आपत्ति की परछाहीं तक न आने दूँगी।‘ माता तो यह सोच रही थी और प्रताप अपने हठी और मुँहजोर घोड़े पर चढने में पूर्ण शक्ति से लीन हो रहा था। बच्चे मन के राजा होते हैं।

अभिप्राय यह कि मोटेराम ने बहुत माल फैलाया। विविध प्रकार का वाक्चातुर्य दिखलाया, परन्तु सुवामा ने एक बार ‘नहीं’ करके ‘हाँ‘ न की। उसकी इस आत्मरक्षा का समाचार जिसने सुना, धन्य-धन्य कहा। लोगों के हृदय में उसकी प्रतिष्ठा दूनी हो गयी। उसने वही किया, जो ऐसे सन्तोषपूर्ण और उदार-हृदय मनुष्य की स्त्री को करना उचित या।

इसके पन्द्रहवें दिन इलाका नीलाम पर चढा। पचास सहस्त्र रुपये प्राप्त हुए। कुल ऋण चुका दिया गया। घर का अनावश्यक सामान बेच दिया गया। मकान में भा सुबामा ने भीतर से ऊँची-ऊँची दीवारें खिंचवा कर दो अलग-अलग खण्ड कर दिये। एक में श्राप रहने लगी और दूसरा भाड़े पर उठा दिया।

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[३]

नये पड़ोसियों से मेल-जोल

मुन्शी सजीवनलाल―जिन्होंने सुवामा का घर भाड़े पर लिया था― बड़े विचारशील मनुष्य थे। पहले एक प्रतिष्ठित पद पर नियुक्त थे, किन्तु अपनी स्वतन्त्र इच्छा के कारण अफसरों को प्रसन्न न रख सके। यहाँ तक कि उनकी रुष्टता से विवश होकर इस्तीफा दे दिया। नौकरी के समय में कुछ पूँजी एकत्र कर ली थी, इसलिए नौकरी छोड़ते ही वे ठेकेदारी की ओर प्रवृत्त हुए और उन्होंने परिश्रम द्वारा अल्प काल ही में अच्छी सम्पत्ति बना ली। इस समय उनकी आय चार-पाँच सौ मासिक से कम न थी। उन्होंने कुछ ऐसी अनुभवशालिनी बुद्धि पायी थी कि जिस कार्य में हाथ डालते, उसमे लाभ छोड़ हानि न होती थी।