पृष्ठ:वरदान.djvu/११३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
वरदान
११२
 

वक्तृता और पुस्तकों ही तक परिमित रहता है। उसके समय और योग्यता का एक छोटा भाग जनता के लाभार्थ भी व्यय होता था। उसने प्रकृति से उदार और दयालु हृदय पाया था और सर्वसाधारण में मिलने-जुलने और काम करने की योग्यता उसे पिता से मिली थी। इन्हीं कार्यों में उसका सदुत्साह पूर्ण रीति से प्रमाणित होता था। बहुधा सन्ध्या-समय वह कीटगज और कटरा की दुर्गन्धिपूर्ण गलियों में घूमता हुआ दिखायी देता, जहाॅ विशेषकर नीची जाति के लोग बसते हैं। जिन लोगों की परछाई से उच्च वर्ण का हिन्दू भागता है, उनके साथ प्रताप टूटी खाट पर बैठकर घटों बातें करता और यही कारण था कि इन महल्लों के निवासी उस पर प्राण देते थे। प्रमाद और शारीरिक सुख-प्रलोभ ये दो अवगुण प्रतापचन्द्र मे नाम-मात्र को भी न थे। कोई अनाथ मनुष्य हा, प्रताप उसकी सहायता के लिए तैयार था। कितनी रातें उसने झोपडा में कराहते हुए रोगियों के सिरहाने खड़े रहकर काटी थी। इसी अभिप्राय से उसने जनता के लाभार्थ एक सभा भी स्थापित कर रखी थी और ढाई वर्ष के स्वल्प समय में ही इस सभा ने जनता की सेवा में इतनी सफलता प्राप्त की थी कि प्रयाग-वासियों को उससे प्रेम हो गया था।

कमलाचरण जिस समय प्रयाग पहुॅचा, प्रतापचन्द्र ने उसका बड़ा आदर किया। समय ने उसके चित्त के द्वेष की ज्वाला शाति कर दी थी। जिस समय वह विरजन की बीमारी का समाचार पाकर वनारस पहुॅचा था और उससे भेंट होते ही विरजन की दशा सुधर चली थी, उसी समय से प्रतापचन्द्र को विश्वास हो गया था कि कमलाचरण ने उसके हृदय में वह स्थान नहीं पाया है, जो मेरे लिए सुरक्षित है। यह विचार द्वेषाग्नि को शाति करने के लिए काफी था। इसके अतिरिक्त उसे प्राय यह विचार भी उद्विग्न किया करता था कि मैं ही सुशीला का प्राणघातक हूॅ। मेरी ही कठोर वाणियों ने उस वेचारी का प्राण घात किया और उसी समय से जब कि सुशीला ने मरते समय ये रोकर उससे अपने अपराधों की क्षमा