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प्रतापचन्द्र और कमलाचरण
 

माँगी थी, प्रताप ने मन में ठान लिया कि अवसर मिलेगा तो मै इस पाप का प्रायश्चित्त अवश्य करूॅगा। कमलाचरण के आदर-सत्कार तथा शिक्षा सुधार मे उसे किसी अंश मे प्रायश्चित को पूर्ण करने का अपूर्व अवसर प्राप्त हुआ। वह उससे इस प्रकार व्यवहार रखता, जैसे छोटा भाई बड़े भाई के साथ। अपने समय का कुछ भाग उसकी सहायता करने में व्यय करता और ऐसी सुगमता से शिक्षक का कर्तव्य पालन करता कि शिक्षा एक रोचक कथा का रूप धारण कर लेती।

परन्तु प्रतापचन्द्र के इन प्रयत्नों के होते हुए भी कमलाचरण का जी यहाॅ बहुत घबराता। सारे छात्रावास में उसके स्वभावानुकूल एक मनुष्य भी न था, जिससे वह अपने मन का दुःख कहता। वह प्रताप से निस्सङ्कोच रहते हुए भी चित्त की बहुत-सी बातें न कहता था। जब निर्जनता से जी अधिक घबराता तो विरजन को कोसने लगता कि मेरे सिर पर यह सब आपत्तियाॅ उसी की लायी हुई है। उसे मुझसे प्रेम नहीं। मुख और लेखन का प्रम भी कोई प्रेम है? मै चाहे उस पर प्राण ही क्यों न वारूॅ, पर उसका प्रेम वाणी और लेखनी से बाहर न निकलेगा। ऐसी मूर्ति के आगे, जो पसीजना जानती ही नहीं, सिर पटकने से क्या लाभ। इन विचारों ने यहाॅ तक जोर पकड़ा कि उसने विरजन को पत्र लिखना भी त्याग दिया। वह वेचारी अपने पत्रो में कलेजा निकालकर रख देतो, पर कमला उत्तर तक न देता। यदि देता भी तो रूखा और हृदय-विदारक। इस समय विरजन की एक एक बात, उसकी एक-एक चाल उसके प्रेम की शिथिलता का परिचय देती हुई प्रतीत होती थी। हाँ, यदि विस्मरण हो गयी थी तो विरजन की स्नेहमयो बातें, वे मतवाली ऑखें जो वियोग के समय डबडबा गयी थीं और वे कोमल हाथ जिन्होंने उससे विनती की थी कि पत्र बराबर भेजते रहना। यदि ये उसे स्मरण हो आते, तो सम्भव था कि उसे कुछ सन्तोष होता। परन्तु ऐसे अवसरों पर मनुष्य की स्मरणशक्ति धोखा दे दिया करती है।