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मन का प्रावल्य
 

प्रताप का सिर धम धम कर रहा था और भय से उसकी पिंडलियाँ काँप रही थीं। सोचता-विचारता घण्टे-भर में मुंशी श्यामाचरण के विशाल भवन के सामने जा पहुॅचा। आज अन्धकार में यह भवन बहुत ही भयावह प्रतीत होता था, मानो पाप का पिशाच सामने खड़ा है। प्रताप दीवार की ओट में खड़ा हो गया, मानो किसी ने उसके पॉप वॉध दिये हैं। आध घण्टे तक वह यही सोचता रहा कि लौट चलूॅ या भीतर जाऊँ? यदि किसी ने देख लिया तो बड़ा ही अनर्थ होगा। विरजन मुझे देखकर मन में क्या सोचेगी? कहीं ऐसा न हो कि मेरा यह व्यवहार मुझे सदा के लिए उसकी दृष्टि से गिरा दे। परन्तु इन सब सन्देहो पर पिशाच का आकर्षण प्रवल हुआ। इन्द्रियों के वश में होकर मनुष्य को भले बुरे का ध्यान नहीं रह जाता। उसने चित्त को दृढ़ किया। वह इस कायरता पर अपने को धिक्कार देने लगा, तदनन्तर घर के पीछे की ओर जाकर वाटिका की चहार-दीवारी से फाँद गया। वाटिका से घर में जाने के लिए एक छोटा सा द्वार था। देवयोग से वह इस समय खुला हुआ था। प्रताप को यह शकुन-सा प्रतीत हुआ। परन्तु वस्तुतः यह अधर्म का द्वार था। भीतर जाते हुए प्रताप के पाँव थर्राने लगे। हृदय इस वेग से धड़कता था, मानो वह छाती से बाहर निकल पड़ेगा। उसका दम घुट रहा था। धर्म ने अपना सारा बल लगा दिया। पर मन का प्रबल वेग न रुक सका। प्रताप द्वार के भीतर प्रविष्ट हुआ और आँगन में तुलसी के चबूतरे के पास चोरो की भांति खड़ा सोचने लगा कि विरजन से क्योंकर भेंट होगी। घर के सब किवाड़ बन्द हैं। क्या विरजन भी यहाँ से चली गयी? अचानक उसे एक बन्द दरवाजे की दरारों से रोशनी के प्रकाश की झलक दिखायी दी। दबे पाँव उसी ओर दरार में आँख लगाकर भीतर का दृश्य देखने लगा।

विरजन एक सफेद साड़ी पहिने, बाल खोले, हाथ में लेखनी लिये भूमि पर बैठी थी और दीवार की ओर देख-देखकर कागज पर कुछ