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मन का प्रावल्य
 

और चक्की का घुर-घुर शब्द कर्णगोचर हो रहा था। प्रताप पॉव दबाता, मनुष्यों की ऑखें बचाता गङ्गाजी की ओर चला। अचानक उसने सिर पर हाथ रखा तो टोपी का पता न था और न जेब मे घड़ी ही दिखाई दी। उसका कलेजा सन्न-से हो गया। मुँह से एक हृदय वेधक आह निकल पड़ी।

कभी कभी जीवन में ऐसी घटनाएँ हो जाती है, जो क्षणमात्र में मनुष्य का रूप पलट देती है। कभी माता-पिता की एक तिर्छी चितवन पुत्र को सुयश के उच्च शिखर पर पहुॅचा देती है और कभी स्त्री की एक शिक्षा पति के शान-चक्षुओं को खोल देती है। गर्वशील पुरुष अपने सगों की दृष्टियों में अपमानित होकर संसार का भार बनना नहीं चाहते। मनुष्य-जीवन मे ऐसे अवसर ईश्वरप्रदत्त होते है। प्रतापचन्द्र के जीवन में भी वह शुभ अवसर था, जब वह संकीर्ण गलियों में होता हुआ गङ्गा के किनारे आकर बैठा और शोक तथा लजा के अश्रु प्रवाहित करने लगा। मनोविकार की प्रेरणाओं ने उसकी अधोगति में कोई कसर उठा न रखी थी परन्तु उसके लिए यह कठोर कृपालु गुरु की ताड़ना प्रमाणित हुई। क्या यह अनुभव सिद्ध नहीं है फि विष भी समयानुसार अमृत का काम करता है?

जिस प्रकार वायु का झोंका सुलगती हुई अग्नि को दहका देता है, उसी प्रकार बहुधा हृदय में दबे हुए उत्साह को भड़काने के लिए किसी बाह्य उपयोग की आवश्यकता होती है। अपने दुःखों का अनुभव और दूसरों की आपत्ति का दृश्य बहुधा वह वैराग्य उत्पन्न करता है ना सत्सङ्ग, अध्ययन और मन की प्रवृत्ति से भी सम्भव नहीं। यद्यपि प्रतापचन्द्र के मन में उत्तम और निःस्वार्थ नीवन व्यतीत करने का विचार पूर्व ही से था, तथापि मनोविकार के धक्के ने यह काम एक ही क्षण में पूरा कर दिया, जिसके पूरा होने में वर्षों लगते। साधारण दशाओं में जाति-सेवा उसके जीवन का एक गौण कार्य होतो, परन्तु इस चेतावनी ने सेवा को