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वरदान
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उसके जीवन का प्रधान उद्देश्य बना दिया। सुवामा की हार्दिक अभिलाषा पूर्ण होने के सामान पैदा हो गये। क्या इन घटनाओं के अन्तर्गत कोई अशात प्रेरक शक्ति थी? कोन कह सकता है?

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[ १२ ]

विदुषी वृजरानी

जब से मुन्शी सजीवनलाल तीर्थयात्रा को निकले और प्रतापचन्द्र प्रयाग चला गया उस समय सुवामा के जीवन में बड़ा अन्तर हो गया था। वह ठेके के कार्य को उन्नत करने लगी। मुंशी सज्जीवनलाल के समय में भी व्यापार मे इतनी उन्नति नहीं हुई थी। सुवामा रात रात भर बैठी ईट-पत्थरों से माथा लड़ाया करती और गारे चूने की चिन्ता में व्याकुल रहती। पाई-पाई का हिसाब समझतो और कभी-कभी स्वय कुलियों के कार्य की देखभाल करती। इन कार्यों मे उसकी ऐसी प्रवृत्ति हुई कि दान और व्रत से भी वह पहले का सा प्रेम न रहा। प्रति दिन आय वृद्धि होने पर भी सुवामा ने व्यय किसी प्रकार का न वढाया। कौड़ी-कौड़ी दॉतों से पकड़ती और यह सब इसलिए कि प्रतापचन्द्र थनवान् हो जाय और अपने जीवन-पर्यन्त सानन्द रहे।

सुवामा को अपने होनहार पुत्र पर अभिमान था। उसके जीवन की गति देखकर उसे विश्वास हो गया था कि मन में जो अभिलाषा रखकर मैंने पुत्र माँगा था, वह अवश्य पूर्ण होगी। वह कालेज के प्रिंसिपल और प्रोफेसरों से प्रताप का समाचार गुप्त रीति से लिया करती थी और उनकी सूचनाओं का अध्ययन उसके लिए एक रोचक कहानी के तुल्य था। ऐसी दशा में प्रयाग से प्रतापचन्द्र के लोप हो जाने का तार पहुँचना मानो उसके हृदय पर वज्र का गिरना था। सुवामा एक ठण्डी साँस ले, मस्तक पर हाथ रख बैठ गयी। तीसरे दिन प्रतापचन्द्र की पुस्तक, कपड़े