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एकता का सम्बन्ध पुष्ट होती है
 

मुन्शी―बेटी, तुम तो संस्कृत पटती हो, यह तो भावा है।

विरजन―तो मैं भी भाषा ही पढूँगी। इसमें कैसी अच्छी-अच्छी कहानियाँ हैं। मेरी किताब में तो एक भी कहानी नहीं। क्यो बाबा, पढ़ना किसे कहते हैं?

मुन्शीजी बगलें झाँकने लगे। इन्होंने आज तक आप ही कभी ध्यान नहीं दिया था कि पढना क्या वस्तु है? अभी वे माथा ही खुजला रहे थे कि प्रताप बोल उठा―मुझे तुमने पढते देखा, उसीको पढना कहते हैं।

विरजन―क्या मैं नहीं पढती? मेरे पढने को पढ़ना नहीं कहते?

विरजन सिद्धान्तकौमुदी पढ रही थी। प्रताप ने कहा―तुम तोते की भाँति रटती हो।

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[ ४ ]

एकता का सम्बन्ध पुष्ट होता है

कुछ काल से सुवामा ने द्रव्याभाव के कारण महाराजिन, कहार और दो महरियों को जवाब दे दिया था, क्योकि अब न तो उनकी कोई आव-श्यक्ता थी और न उनका व्यय ही सँभाले सँभलता था। केवल एक बुढिया महरी शेष रह गयी थी। ऊपर का कामकान वह करती, रसोई सुवामा स्वय बना लेती। पन्तु उस बेचारी को ऐसे कठिन परिश्रम का अभ्यास तो कभी था नहीं, थोड़े ही दिनो में उसे थकान के कारण रात को कुछ ज्वर रहने लगा। धीरे-धीरे यह गति हुई कि जब देखिए ज्वर विद्यमान है। शरीर भुना जाता है, न खाने की इच्छा है, न पीने की। किसी कार्य में मन नहीं लगता। पर यह है कि सदैव नियम के अनुसार काम किये जाती है जब तक प्रताप घर रहता है, तब तक वह मुखाकृति को तनिक भी मलिन नहीं होने देती। परन्तु ज्योंही वह स्कूल चला जाता है, त्योंही वह चद्दर ओढ़कर पड़ रहती है और दिन भर पड़े-पड़े कगहा करती है।