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माधवी
 

उस बेचारी को क्या मालूम था कि ये आशाएँ शोक बनकर नेत्रों के मार्ग से वह जायेंगी? उसका पन्द्रहवाँ वर्ष पूरा भी न हुआ था कि विरजन पर गृह-विनाश की आपत्तियाँ या पड़ी। उस आँधी के झोके ने माधवी की इस कल्लित पुष्प वाटिका का सत्यानाश कर दिया। इसी बीच में प्रताप- चन्द्र के लोप होने का समाचार मिला। ऑधी ने जो कुछ अवशिष्ट रखा था, वह भी इस अग्नि ने जलाफर भस्म कर दिया।

परन्तु मानस कोई वस्तु है, तो माधवी प्रतापचन्द्र की स्त्री बन चुकी। उसने अपना तन और मन उन्हें समर्पण कर दिया। प्रताप को ज्ञान नहीं। परन्तु उन्हें एसी अमूल्य वस्तु मिली है, जिसके बराबर ससार में कोई वस्तु नही तुल सकती। माधवी ने केवल एक बार प्रताप को देखा था और केवल एक ही बार उनके अमृत-वचन सुने थे। मगर इसने उस चित्र को और भी उज्ज्वल कर दिया था, जो उ के हृदय पर पहले ही विरजन ने खींच रखा था। प्रताप का पता नहीं है, भर माधवी उसकी प्रेमाग्नि में दिन-प्रति-दिन घुलती जाती है। उस दिन से कोई ऐसा व्रत नहीं था, जो माधवी न रखती हो; कोई ऐसा देवता नहीं था, जिसकी वह पूजा न करती हो और यह सब इसलिए कि ईश्वर प्रताप को जहाॅ कहीं वे हो कुशल से रखे। इन प्रेम कल्पनाओं ने उस बालिका को और भी अधिक दृढ़, सुशील और कोमल बना दिया, त्यात् उसके चित्त ने यह निर्णय कर लिया था कि मेरा विवाह प्रतापचन्द्र से हो चुका। विरजन उसकी यह दशा देखती और रोती कि यह आग मेरी ही लगाई हुई है। यह नवकुतुन किसके कण्ठ का हार बनेगा? यह किसकी होकर रहेगी? हाय! जिस बीज को मैने इतने परिश्रम से अकुरित किया और मधुक्षोर से सींचा, उसका फल इस प्रकार शाखा पर ही कुम्हलाया जाता है। विरजन तो भला कयिता करने में उलझी रहती, किन्तु माधवी को यह सन्तोष भी न था। उसका प्रेमी और साथी उसके प्रियतम का ध्यान मात्र था-उस प्रियतम का जो उसके लिए सर्वथा अपरिचित था। प्रताप के चले जाने के कई मास पीछे