सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:वरदान.djvu/१४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
वरदान
१३८
 

एक दिन माधवी ने स्वप्न देखा कि वे सन्यासी हो गये हैं। आज माधवी का अपार प्रेम प्रकट हुआ है। आकाशवाणी-सी हो गयी कि प्रताप ने अवश्य संयास ले लिया। आज से वह भी तपस्विनी बन गयी। उसने अपने सुख और विलास की लालसा हृदय से निकाल दी।

जब कभी बैठे-बैठे माधवी का जी बहुत आकुल होता,तो वह प्रताप-चन्द्र के घर चली जाती। वहाॅ उसके चित्त को थोड़ी देर के लिए शाति मिल जाती थी। यह भवन माधवी के लिए एक पवित्र मन्दिर था। जब तक विरजन और सुवामा के हृदयों में ग्रन्थि पड़ी हुई थी, वह यहाॅ बहुत कम आती थी। परन्तु जब अन्त में विरजन के पवित्र और आर्दश जीवन ने यह गाँठ खोल दी और वे गगा-यमुना की भाँति परस्पर गले मिल गयीं, तो माधवी का आवागमन भी बढ गया। सुवामा के पास दिन-दिन भर बैठी रह जाती। इस भवन की एक एक अगुल पृथ्वी प्रताप का स्मारक थी। इसी ऑगन में प्रताप ने काठ के घोड़े दौड़ाये थे और इसी कुण्ड में कागज़ की नावें चलायी थीं। नौकाएँ तो स्यात् काल के भँवर में पड़-कर डूब गयीं, परन्तु घोड़ा अब भी विद्यमान था। माधवी ने उसकी जर्जरित अस्थियों में प्राण डाल दिया और उसे वाटिका में कुण्ड के किनारे एक पाटलवृक्ष की छाया में बाँध दिया। यही भवन प्रतापचन्द्र का शयनागार था। माधवी अब उसे अपने देवता का मन्दिर समझती है। इसी पलॅग ने प्रताप को बहुत दिनों तक अपने अक में थपक यपककर सुलाया था माधवी अब उसे पुष्षों से सुसज्जित करती है। माधवी ने इस कमरे को ऐसा सुसज्जित कर दिया, जैसा वह कभी न था। चित्रों के मुख पर से धूल की यवनिका उठ गयी। लैम्प का भाग्य पुनः चमक उठा। माधवी की इस अनन्त प्रेम-भक्ति से सुवामा का दुःख भी दूर हो गया। चिर काल से उसके मुख पर प्रतापचन्द्र का नाम कभी न आया था। विरजन से मेल- मिलाप भी हो गया, परन्तु दोनों स्त्रियों में कमी प्रतापचन्द्र की चर्चा भी न होती थी। विरजन लज्जा से सकुचित थी और सुवामा क्रोध से। किंतु