पृष्ठ:वरदान.djvu/१४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३९
माधवी
 

माधवी के प्रेमानल से पत्थर भी पिघल गया। जब वह प्रेमविह्वल होकर प्रताप के बालपन की बातें पूछने लगती तो सुबामा से न रहा जाता।उसकी ऑखों में जल भर आता। तब दोनों-की-दोनो रोतीं और दिन-दिन भर प्रताप की बातें समाप्त न होतीं। क्या अब माधवी के चित्त की दशा सुवामा से छिप सकती थी? वह बहुधा सोचती कि क्या यह तपस्विनी इसी प्रकार प्रमाग्नि में जलती रहेगी और वह भी बिना किसी आशा के? एक दिन बृजरानी ने ‘कमला का पैकेट खोला, तो पहले ही पृष्ट पर एक परम प्रतिभा-पूर्ण चित्र, विविध रग्डों में दिखायी पड़ा। यह किसी महात्मा का चित्र था। उसे ध्यान आया कि मैने इन महात्मा को कहीं अवश्य देखा है। सोचते-सोचते अकस्मात् उसका ध्यान प्रतापचन्द्र तक जा पहुॅचा। आनन्द के उमंग में उछल पड़ी और बोली-माधवी, तनिक यहाॅ आना।

माधवी फूलों की क्यारियाॅ सींच रही थी। उसके चित्त-विनोद का आजकल यही कार्य था। वह साड़ी पानी में लथपथ, सिर के बाल विखरे माथे पर पसीने के बिन्दु और नेत्रों में प्रेम का रस भरे हुए आकर खड़ी हो गयी। विरजन ने कहा―आ, तुझे एक चित्र दिखाऊँ।

माधवी ने कहा―किसका चित्र है, देखूॅ?

माधवी ने चित्र को ध्यानपूर्वक देखा। उसकी ऑखों मे ऑसू आ गये।

विरजन―पहचान गयी?

माधवी―क्यों? यह स्वरूप तो कई बार स्वप्न में देख चुकी हूॅ! बदन से कान्ति बरस रही है।

विरजन―देखो, वृत्तान्त भी लिखा है।

माधवी ने दूसरा पन्ना उलटा तो ‘स्वामी बालाजी' शीर्षक लेख मिला।

थोड़ी देर तक दोनों तन्मय होकर यह लेख पढ़ती रहीं, तब बात-चीत होने लगी।