घरदान १४० विरजन-मैं तो प्रथम ही जान गयी थी कि उन्होंने अवश्य संन्यास ले लिया होगा। माधवी पृथ्वी की अोर देख रही थी, मुख से कुछ न बोली। विरजन -तत्र में और अब में कितना अन्तर है ! मुखमण्डल से कान्ति झलक रही है । तब ऐसे सुन्दर न थे। माधवी-हूँ। विरजन-ईश्वर उनकी सहायता करे । बड़ी तपस्या की है। ( नेत्रों में जल भरकर ) कैसा सयोग है । हम और वे सग सग खेले, सग-सग रहे, आज वे सन्यासी हैं और मैं वियोगिनी । न जाने उन्हें हम लोगों की कुछ सुध भी है या नहीं । जिसने संन्यास ले लिया, उसे किसी से क्या मतलब ? जब चाची के पास पत्र लिखा तो भला हमारी सुधि क्या होगी? माधवी १ वालकपन में वे कभी योगी योगी खेलते तो मैं मिठाइयों की भिक्षा दिय करती थी। ___माधवी ने रोते हुए 'न-जाने कब दर्शन होंगे , कहकर लन्जा से सिर झुका लिया। ___विरजन-शीघ्र ही आयेंगे । प्राणनाथ ने यह लेख बहुत सुन्दर लिखा है। माधवी - एक एक शब्द से भक्ति टपकती है। विरजन-धक्तृता की कैसी प्रशसा की है । उनकी वाणी में तो पहले ही जादू था, अब क्या पूछना ! प्राणनाथ के चित्त पर जिसकी वाणो का ऐसा प्रभाव हुआ, वह समस्त पृथ्वी पर अपना जादू फैला सकता है। माधवी-चलो, चाची के यहाँ चलें । विरजन-हाँ, उनका तो ध्यान ही नहीं रहा । देखें, क्या कहती हैं। प्रसन्न तो क्या होगी? माधवी-उनकी तो अभिलाषा ही यह थी प्रसन्न क्यों न होगी ? विरजन-चल! माता ऐसा समाचार सुनकर कभी प्रसन्न नहीं हो सकती।
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