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काशी में आगमन
 

के अधिक अनुरोध करने पर विरजन ने बालाजी को काशी में आने का निमन्त्रण देने के लिए लेखनी को उठाया था। बनारस ही वह नगर था, जिसका स्मरण कभी-कभी बालाजी को व्यग्र कर दिया करता था। किन्तु काशीवालों के निरन्तर आग्रह करने पर भी उन्हें काशी आने का अवकाश न मिलता था । वे सिंघल और रंगून तक गये; परन्तु उन्होंने काशी की ओर मुख न फेरा । इस नगर को वे अपना परीक्षा-भवन समझते थे। इसीलिए आज विरजन उन्हें काशी आने का निमन्त्रण दे रही है। लोगों का विचार है कि यह निमन्त्रण उन्हें अवश्य खींच लायेगा। जब कोई नवीन विचार आ जाता है, तो विरजन का चन्द्रानन चमक उठता है और माधवी के बदन पर प्रसन्नता की झलक आ जाती है। वाटिका में बहुत से पाटल-पुष्प लिखे हुए है, रजनी की ओस से मिलकर वे इस समय परम शोभा दे रहे हैं, परन्तु इस समय जो नवविकास और छटा इन दोनों पुष्पो पर है, उसे देख-देखकर दूसरे फूल लज्जित हुए जाते है । नौ बजते-बजते विरजन घर मे आयी । सेवती ने कहा-आज बड़ी देर लगायी। विरजन-कुंंती ने सूर्य को बुलाने के लिए कितनी तपस्या की थी। सीता-बाला जी बड़े निष्ठुर है । मैं तो ऐसे मनुष्य से कभी न बोलू। रुक्मिणी-जिसने संन्यास ले लिया, उसे घर-बार से क्या नाता ? चन्द्र कुँवर-यहाँ आयेंगे तो में मुख पर कह दूंगी कि महाशय, यह नखरे कहाँ सीखे ? रुक्मिणी-महारानी । ऋषि-महात्माओं का तो शिष्टाचार किया करो। जिहा क्या है, कतरनी है। चन्द्रकुँवर-और क्या, कब तक सन्तोष करें जी ! सब जगह जाते हैं, यहीं आते पैर थकते है। विरजन-(मुस्कराकर ) अब बहुत शीघ्र दर्शन पाओगी। मुझे