सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:वरदान.djvu/१५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४४
वरदान
 

वरदान १४४ सीता-धन्य भाग्य कि दर्शन मिलेंगे। मैं तो जब उनका वृतान्त पढती हूँ तो यही जी चाहता है कि पाऊँ तो चरण पकड़कर घण्टों रोऊँ । रूक्मिणो- ईश्वर ने उनके हाथों में बड़ा यश दिया है । दागनगर की रानी साहिबा मर चुकी थीं, साँस टूट रही थी कि बालाजी को सूचना हुई । झट आ पहुंचे और क्षणमात्र में उठाकर बैठा दिया। हमारे मुशीजी ( पति ) उन दिनों वहीं थे । कहते थे कि रानीजी ने कोश की कुञ्जी बालाजी के चरणों पर रख दी और कहा-'आप इसके स्वामी है।' बालानी ने कहा- मुझे धन की आवश्यकता नहीं, आप अपने राज्य में तीन सौ गोशालाएँ खुलवा दीजिये ।' मुख से निकलने की देर थी। आज दारानगर में दूध की नदी बहती है। ऐसा महात्मा कौन होगा । चन्द्रकुँवर -रानी नवलखा का तपेदिक उन्हीं की बूटियों से छूटा। सारे वैद्य डाक्टर जवाब दे चुके थे। जब बालाजी चलने लगे, तो महारानीजी ने नौ लाख का मोतियों का हार उनके चरणों पर रख दिया । बालाजी ने उसकी ओर देखा तक नहीं। रानी-कैसे रूखे मनुष्य हैं ! रुक्मिणी-हॉ और क्या, उन्हें उचित था कि हार ले लेते, नहीं- नहीं, कण्ठ में डाल लेते। विरजन-नहीं, लेकर रानी को पहिना देते । क्यों सखी ? रानी–हाँ, मैं उस हार के लिए गुलामी लिख देती । चन्द्रकुँवर-हमारे यहाँ (पति ) तो भारत सभा के सभ्य बैठे हैं। ढाई सौ रुपए लाख यत्न करके रख छोड़े थे, उन्हें यह कहकर उठा ले गये कि घोड़ा लेंगे। क्या भारत-सभावाले बिना घोड़े के नहीं चलते ? रानी-कल ये लोग श्रेणी वाँधकर मेरे घर के सामने से जा रहे थे। बड़े भले मालूम होते थे।इतने ही में सेवती नवीन समाचार-पत्र ले आयी । विरजन ने पूछा-कोई ताजा समाचार है,१