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पृष्ठ:वरदान.djvu/१६२

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काशी में आगमन
 

हृदय ने कैसे-कैसे कष्ट उठाये हैं। क्या खबर थी कि हमारे भाग्य ऐसे दृश्य दिखायेंगे? एक वियोगिन हो जायेगी और दूसरा संन्यासी।

अकस्मात् माधवी को ध्यान आया कि सुवामा को कदाचित् बालाजी के आने की सूचना न हुई हो। वह विरजन के पास आकर बोली―मैं तनिक चची के यहां जाती हूॅ। न-जाने किसी ने उनसे कहा या नहीं?

प्राणनाथ बाहर से आ रहे थे, यह सुनकर बोले―वहाँ सबसे पहले सूचना दी गयी। भली-भाँति तैयारियाँ हो रही हैं। बालाजी भी सीधे घर ही की ओर पधारेंगे। इधर से अब न आयेंगे।

बिरजन―तो हम लोगों को चलना चाहिये। कहीं देर न हो जाय।

माधवी―आरती का थाल लाऊँ?

विरजन―कौन ले चलेगा? महरी को बुला लो (चौककर) अरे! तेरे हाथों में यह रुधिर कहीं से आया?

माधवी―ऊँह! फूल चुनती थी, काँटे लग गये होंगे।

चन्द्रा―अभी नयी साड़ी आयी है। आज ही फाड़ के रख दी।

माधवी―तुम्हारी बला से।

माधवी ने यह कह तो दिया, किन्तु ऑखें अश्रुपूर्ण हो गयीं। चन्द्रा साधारणत बहुत भली स्त्री थी। किन्तु जबसे बाबू राधाचरण ने जाति सेवा के लिए नौकरी से इस्तीफा दे दिया था, वह बालाजी के नाम से चिढ़ती थी। बिरजन से तो कुछ कह न सकती थी; परन्तु माधवी को छेड़ती रहती थी। बिग्जन ने चन्द्रा की ओर घूरकर माधवी से कहा―जाओ, सन्दूक से दूसरी साड़ी निकाल लो। इसे रख आयो। राम-राम, मार के हाथ छलनी कर डाले।

माधवी―देर हो जायगी, मैं इसी भाँति चलूँगी।

विरजन―नहीं, अभी घण्टा भर से अधिक अवकाश है।

यह कहकर विरजन ने प्यार से माधवी के हाथ धोये। उसके बाल गुँथे एक सुन्दर साड़ी पहिनायो, चादर ओढ़ायी और उसे हृदय से लगा-