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वरदान
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कर सजल नेत्रों से देखते हुए कहा―बहिन! देखो, धीरज हाथ से न जाय।

माधवी मुस्कुराकर बोली―तुम मेरे ही सङ्ग रहना, मुझे सँभालती रहना। मुझे अपने हृदय पर आज भरोसा नहीं है।

बिरजन ताड़ गयी कि आज प्रेम ने उन्मत्तता का पद ग्रहण किया है और कदाचित् यही उसकी पराकाष्ठा है। हाँ। यह वावली वालू की मीत उठा रही है!

माधवी थोड़ी देर के बाद विरजन, सेवती, चन्द्रा आदि कई स्त्रियों के सङ्ग सुवामा के घर चली। वे वहाँ की तैयारियाँ देखकर चकित हो गयीं। द्वार पर एक बहुत बड़ा चॅदोवा विछावन, शीशे और भाँति-भाँति की सामग्रियों से सुसज्जित खड़ा था। वधाई बज रही थी। बड़े-बड़े टोकरों में मिठाइयाँ और मेवे रखे हुए थे। नगर के प्रतिष्ठित सभ्य उत्तमोत्तम वस्त्र पहिने हुए स्वागत करने को खड़े थे। एक भी फिटन या गाड़ी दिखायी नहीं देती थी, क्योंकि बालाजी सर्वदा पैदल ही चला करते थे। बहुत-से लोग गले मे झोलियाॅ डाले हुए दिखायी देते थे, जिनमें वालानी पर समर्पण करने के लिए रुपये-पैसे भरे हुए थे। राजा धर्मसिंह के पाँचों लड़के रङ्गीन वस्त्र पहिने, केसरिया पगड़ी बाॅधे, रेशमी झण्डियाॅ कमर में खोंसे विगुल बजा रहे थे। ज्योंही लोगों की दृष्टि विरजन पर पड़ी, सहस्त्रों मस्तक शिष्टाचार के लिए झुक गये। जब ये देवियाँ भीतर गयी तो वहाँ मी आँगन, दालान और कमरे नवागत वधू की भाॅति सुसज्जित दिखे। सैकड़ों स्त्रिया मङ्गल गाने के लिए बैठी थीं। पुष्पों की राशिया ठौर-ठौर पर पड़ी थीं। सुवामा एक श्वेत साड़ी पहिने सन्तोष और शान्ति की मूर्ति बनी हुई द्वार पर खड़ी थी। विरजन और माधवी को देखते ही सजल- नयन हो गयी। विरजन बोली―चची! आज इस घर के भाग्य जग गये।

सुवामा ने रोकर कहा―तुम्हारे कारण मुझे आज यह दिन देखने का सौभाग्य हुआ। ईश्वर तुम्हें इसका फ़ल दे!

दुखिया माता के अन्तःकरण से यह आशीर्वाद निकला। एक दुखिया